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भ्रमरगीत-सार/१७६-ऊधो! इतनी जाय कहो

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५१

 

ऊधो! इतनी जाय कहो।

सब बल्लभी कहति हरि सों ये दिन मधुपुरी रहो॥
आज काल तुमहूँ देखत हौ तपत तरनि[] सम चंद।
सुंदरस्याम परम कोमल तनु क्यों सहि हैं नँदनंद॥
मधुर मोर पिक परुष[] प्रबल अति बन उपबन चढ़ि बोलत।
सिंह बृकन सम गाय बच्छ ब्रज बीथिन बीथिन डोलत॥
आसन असन, बसन विष अहि सम भूषन भवन भँडार।
जित तित फिरत दुसह द्रुम द्रुम प्रति धनुष लए सत मार[]
तुम तौ परम साधु कोमलमन जानत हौ सब रीति।
सूर स्याम को क्यों बोलैं[] ब्रज बिन टारे यह ईति[]॥१७६॥

  1. तरनि=सूर्य।
  2. परुष=कठोर, कड़े।
  3. मार=कामदेव।
  4. बोलैं=बुलावें।
  5. ईति=बाधा, उपद्रव।