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भ्रमरगीत-सार/१७९-ऊधो यहि ब्रज बिरह बढ़्यो

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५२

 

ऊधो! यहि ब्रज बिरह बढ़्यो।

घर, बाहिर, सरिता, बन, उपबन, बल्ली, द्रुमन चढ्यो॥
बासर-रैन सधूम भयानक दिसि दिसि तिमिर मढ्यो।
द्वँद करत अति प्रबल होत पुर, पय सों अनल डढ्यो॥
जरि किन होत भस्म छन महियाँ हा हरि, मँत्र पढ्यो।
सूरदास प्रभु नँदनँदन बिनु नाहिंन जात कढ्यो॥१७९॥