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भ्रमरगीत-सार/१७-ऊधो को उपदेस सुनौ किन कान दै

विकिस्रोत से
भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ९२ से – ९५ तक

 

राग नट

ऊधो को उपदेस सुनौ किन कान दै?

सुंदर स्याम सुजान पठायो मान दै॥ध्रुव॥

कोउ आयो उत तायँ जितै नँदसुवन सिधारे।
वहै बेनु-धुनि होय मनो आए नँदप्यारे॥
धाई सब गलगाजि कै[] ऊधो देखे जाय।
लै आईं ब्रजराज पै हो, आनँद उर न समाय॥
अरघ आरती, तिलक, दूब दधि माथे दीन्ही।

कंचन-कलस भराय आनि परिकरमा कीन्हीं॥
गोप-भीर आँगन भई मिलि बैठे यादवजात[]
जलझारी आगे धरी, हो, बूझति हरि-कुसलात॥
कुसल-छेम बसुदेव, कुसल देवी कुवजाऊ।
कुसल-छेम अक्रूर, कुसल नीके बलदाऊ॥
पूछि कुसल गोपाल की रहीं सकल गहि पाय।
प्रेम-मगन ऊधो भए, हो. देखत व्रज को भाय[]
मन मन ऊधो कहै यह न बूझिय गोपालहि[]
ब्रज को हेतु बिसारि जोग सिखवत ब्रजबालहि॥
पाती बाँचि न आवई रहे नयन जल पूरि।
देखि प्रेम गोपीन को, हो ज्ञान-गरब गयो दूरि॥
तब इत उत बहराय नीर नयनन में सोख्यो।
ठानी कथा प्रबोध बोलि सब गुरू समोख्यो[]
जो ब्रत मुनिवर ध्यावही पर पावहिं नहिं पार।
सो ब्रत सीखो गोपिका, हो, छाँड़ि विषय-विस्तार॥
सुनि ऊधो के बचन रहीं नीचे करि तारे[]
मनो सुधा सों सींचि आनि विषज्वाला जारे॥
हम अबला कह जानहीं जोग-जुगुति की रीति।
नँदनंदन ब्रत छाँड़ि कै, हो, को लिखि पूजै भीति[]?
अबिगत, अगह, अपार, आदि अवगत है सोई।
आदि निरंजन नाम ताहि रंजै सब कोई॥

नासिका-अग्र है तहाँ ब्रह्म को बास।
अबिनासी बिनसै नहीं, हो, सहज ज्योति-परकास॥
घर लागै'[] औघूरि कहे मन कहा बँधावै।
अपनो घर परिहरे कहो को घरहि बतावै?
मूरख जादवजात हैं हमहिं सिखावत जोग।
हमको भूली कहत हैं हो, हम भूली किधौं लोग?
गोपिहु ते भयो अंध ताहि दुहुं लोचन ऐसे!
ज्ञाननैन जो अंध ताहि सूझै धौं कैसे?
बूझै निगम बोलाइ कै, कहै वेद समुझाय।
आदि अंत जाके नहीं, हो, कौन पिता को माय?
चरन नहीं भुज नहीं, कहौ, ऊखल किन बाँधो?
नैन नासिका मुख नहीं चोरि दधि कौन खाँधो[]?
कौन खिलायो गोद में, किन कहे तोतरे बैन?
ऊधो ताको न्याव है, हो, जाहि न सूझै नैन॥
हम बूझति सतभाव न्याव तुम्हरे मुख साँचो।
प्रेम-नेम रसकथा कहौ कंचन की काँचो[१०]
जो कोउ पावै सीस दै[११] ताको कीजै नेम।
मधुप हमारी सौं[१२] कहो, हो, जोग भलो किधौं प्रेम॥
प्रेम प्रेम सों होय प्रेम सों पारहि जैए।
प्रेस बँध्यो संसार, प्रेम परमारथ पैए॥

एकै निहचै प्रेम को जीवन-मुक्ति रसाल।
साँचो निहचै प्रेम को, हो, जो मिलिहैं नँदलाल।
सुनि गोपिन को प्रेम नेम[१३] ऊधो को भूल्यो।
गावत गुन-गोपाल फिरत कुंजन में फूल्यो॥
छन गोपिन के पग धरै, धन्य तिहारो नेम।
धाय धाय द्रुम भेंटहीं, हो, ऊधो छाके प्रेम॥
धनि गोपी, धनि गोप, धन्य सुरभी बनचारी।
धन्य, धन्य! सो भूमि जहाँ बिहरे बनवारी॥
उपदेसन आयो हुतो मोहिं भयो उपदेस।
ऊधो जदुपति पै गए, हो, किए गोप को बेस॥
भूल्यो जदुपति नाम, कहते गोपाल गोसाँई।
एक बार ब्रज जाहु देहु गोपिन दिखराई॥
गोकुल को सुख छाँड़ि कै कहाँ बसे हौ आय।
कृपावंत हरि जानि कै, हो, ऊधो पकरे पाय॥
देखत ब्रज को प्रेम नेम कछु नाहिंन भावै।
उमड़्यो नयननि नीर बात कछु कहत न आवै॥
सूर स्याम भूतल गिरे, रहे नयन जल छाय।
पोंछि पीतपट सों कह्यो, 'आए जोग सिखाय'?॥१७॥

  1. गलगाजि कै=आनंदित होकर।
  2. यादवजात=यादव से उत्पन्न अर्थात् उद्धव।
  3. भाय=भाव।
  4. यह न...गोपालहि=गोपाल की यह बात समझ में नहीं आती।
  5. समोख्यो=सहेज कर कहा।
  6. तारे=पुतली, आँख।
  7. भीति=दीवार।
  8. घर लागै=ठिकाने लगता है। औघूरि=घूमकर। घर......बँधावै=मन घूमकर फिर अपने ही ठिकाने आता है उसे कह सुनकर क्या कोई बाँध सकता है?
  9. खाँधो=(सं॰ खादन) खाय।
  10. काँचो=काँच।
  11. सीस दै=सिर देकर, प्राण खोकर।
  12. हमारी सौं=हमारी सौगंध।
  13. नेम = नियय, योग