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भ्रमरगीत-सार/१८४-ऊधो कहत न कछू बनै

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५४

 

राग आसावरी
ऊधो! कहत न कछू बनै।

अधरामृत-आस्वादिनि रसना कैसे जोग भनै?
जेहि लोचन अवलोके नखसिख-सुन्दर नंदतनै।
ते लोचन क्यों जायँ और पथ लै पठए अपनै?
रागिनि राग तरँग तान घन जे स्रुति मुरलि सुनै।
ते स्रुति जोग-सँदेस कठिन कह काँकर मेलि हनै॥
सूरदास स्यामा मोहन के यह गुन बिबिध गुनै।
कनकलता तें उपज न मुक्ता, षटपद! रंग चुनै॥१८४॥