[ १५६ ]
जौ मन हाथ हमारे होतो तौ कत सहती एती? हृदय कठोर कुलिस हू तें अति तामें चेत अचेती। तब उर बिच अंचल नहिं सहती, अब जमुना की रेती॥ सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन को, सरन देहु अब सेंती[१]। बिन देखे मोहिं कल न परत है जाको स्रुति गावत है नेती॥१९१॥