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भ्रमरगीत-सार/२०५-ऊधो जो हरि हितू तिहारे

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भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १५९

 

राग केदारो
ऊधो! जो हरि हितू तिहारे।

तौ तुम कहियो जाय कृपाकै जे दुख सबै हमारे॥
तन तरुवर ज्यों जरति बिरहिनी, तुम दव ज्यों हम जारे।
नहिं सिरात[], नहिं जरत छार ह्वै सुलगि सुलगि भए कारे॥
जद्यपि उमगि प्रेमजल भिजवत बरषि बरषि घन-तारे[]
जौ सींचे यहि भाँति जतन करि तौ इतने प्रतिपारे॥
कीर, कपोत, कोकिला, खँजन बधिक-बियोग बिडारे।
इन दुःखन क्यों जियहिं सूर प्रभु ब्रज के लोग बिचारे?॥२०५॥

  1. सिरात=ठंढी होती है।
  2. तारे=आँख की पुतली रूपी बादल।