बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ९७
जोग-अंग साधत जे ऊधो ते सब बसत ईसपुर कासी॥ यद्यपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरननि रसरासी[१]। अपनी सीतलताहि न छाँड़त यद्यपि है ससि राहु-गरासी। का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेमभजन तजि करत उदासी[२]। सूरदास ऐसी को बिरहिन माँगति मुक्ति तजे गुनरासी?॥२१॥