भ्रमरगीत-सार/२२१-ऊधो कुलिस भई यह छाती
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ऊधो! कुलिस भई यह छाती।
मेरो मन रसिक लग्यो नँदलालहि, झखत रहत दिनराती॥
तजि ब्रजलोक, पिता अरु जननी, कंठ लाय गए काती।
ऐसे निठुर भए हरि हमको कबहुँ न पठई पाती॥
पिय पिय कहत रहत जिय मेरो ह्वै चातक की जाती।
सूरदास प्रभु प्रानहिं राखहु ह्वै कै बूँद-सवाती॥२२१॥