भ्रमरगीत-सार/२२६-ऊधो! राखिए वह बात
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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १६६
कहत हौ अनहद सुबानी सुनत हम चपि जात॥
जोग फल-कुष्मांड ऐसो अजामुख न समात।
बारबार न भाखिए कोउ अमृत तजि बिष खात?
नयन प्यासे रूप के, जल दए नाहिं अघात।
सूर प्रभु मन हरि गए लै छाँड़ि तन-कुसलात[१]॥२२६॥