सामग्री पर जाएँ

भ्रमरगीत-सार/२२७-ऊधो! बात तिहारी जानी

विकिस्रोत से
भ्रमरगीत-सार
रामचंद्र शुक्ल

बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १६६ से – १६७ तक

 

ऊधो! बात तिहारी जानी।

आए हौ ब्रज को बिन काजहि, दहत हृदय कटु बानी॥
जो पै स्याम रहत घट तौ कत बिरह-बिथा न परानी?
झूठी बातनि क्यों मन मानत चलमति, अलप[] गियानी[]

जोग-जुगुति की नीति अगम हम ब्रजवासिनि कह जाने?
सिखवहु जाय जहाँ नटनागर रहत प्रेम लपटाने॥
दासी घेरि रहे हरि, तुम ह्याँ गढ़ि गढ़ि कहत बनाई।
निपट निलज्ज अजहुँ न चलत उठि, कहत सूर समुझाई॥२२७॥

  1. अलप=थोड़ी।
  2. गियानी=बुद्धिवाला।