भ्रमरगीत-सार/२२७-ऊधो! बात तिहारी जानी

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ऊधो! बात तिहारी जानी।

आए हौ ब्रज को बिन काजहि, दहत हृदय कटु बानी॥
जो पै स्याम रहत घट तौ कत बिरह-बिथा न परानी?
झूठी बातनि क्यों मन मानत चलमति, अलप[१] गियानी[२]

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जोग-जुगुति की नीति अगम हम ब्रजवासिनि कह जाने?
सिखवहु जाय जहाँ नटनागर रहत प्रेम लपटाने॥
दासी घेरि रहे हरि, तुम ह्याँ गढ़ि गढ़ि कहत बनाई।
निपट निलज्ज अजहुँ न चलत उठि, कहत सूर समुझाई॥२२७॥

  1. अलप=थोड़ी।
  2. गियानी=बुद्धिवाला।