भ्रमरगीत-सार/२२९-ऊधो! बेदबचन परमान
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ऊधो! बेदबचन परमान।
कमल मुख पर नयन-खंजन देखिहैं क्यों आन?
श्री-निकेत-समेत सब गुन, सकल-रूप-निधान।
अधर-सुधा पिवाय बिछुरे पठै दीनो ज्ञान॥
दूरि नहीं दयाल सब घट कहत एक समान।
निकसि क्यों न गोपाल बोधत दुखिन के दुख जान?
रूप-रेख न देखिए, बिन स्वाद सब्द भुलान।
ईखदंडहि डारि हरिगुन, गहत पानि बिषान॥
बीतराग सुजान जोगिन, भक्तजनन निवास।
निगम-बानी मेटिकै क्यों कहै सूरदास[१]?॥२२९॥
- ↑ यहाँ टंकण की अशुद्धि से सूरजदास छप गया है।