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भ्रमरगीत-सार/२३४-ऊधो! और कछू कहिबे को

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १६९

 

ऊधो! और कछू कहिबे को?

सीऊ कहि डारौ पा लागैं, हम सब सुनि सहिबे को॥
यह उपदेस आज लौं मैं, सखि, स्रवन सुन्यो नहिं देख्यो।
नीरस कटुक तपत जीवनगत, चाहत मन उर लेख्यो!
बसत स्याम निकसत न एक पल हिये मनोहर ऐन।
या[] कहँ यहाँ ठौर नाहीं, लै राखौ जहाँ सुचैन॥
हम सब सखि गोपाल-उपासिनि हमसों बातैं छाँड़ि।
सुर मधुप! लै राखु मधुपुरी कुबजा के घर गाड़ि॥२३४॥

  1. या कहँ=अर्थात् निगुण को।