भ्रमरगीत-सार/२४-जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहैं

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भ्रमरगीत-सार  (1926) 
द्वारा रामचंद्र शुक्ल

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जोग ठगौरी[१] ब्रज न बिकैहै।

यह ब्योपार तिहारो ऊधो ऐसोई फिरि जैहै॥
जापै लै आए हौ मधुकर ताके उर न समैहै।
दाख छांड़ि कै कटुक निंबौरी[२] को अपने मुख खैहै?
मूरी के पातन के केना[३] को मुक्ताहल दैहै।
सूरदास प्रभु गुनहिं छांड़ि कै को निर्गुन निरबैहै? ॥२४॥

  1. ठगौरी=ठगपने का सौदा।
  2. निबौरी=नीम का फल।
  3. केना=सौदा। छोटा मोटा साग मूली आदि का बदला।