बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ ९८
यह ब्योपार तिहारो ऊधो ऐसोई फिरि जैहै॥ जापै लै आए हौ मधुकर ताके उर न समैहै। दाख छांड़ि कै कटुक निंबौरी[२] को अपने मुख खैहै? मूरी के पातन के केना[३] को मुक्ताहल दैहै। सूरदास प्रभु गुनहिं छांड़ि कै को निर्गुन निरबैहै? ॥२४॥