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भ्रमरगीत-सार/२७३-मधुकर ये सुनु तन मन कारे

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १८५

 

मधुकर! ये सुनु तन मन कारे।
कहूं न सेत सिद्धताई तन परसे हैं अँग कारे॥
कीन्हो कपट कुंभ विषपूरन पयमुख प्रगट उघारे।
बाहिर बेष मनोहर दरसत, अन्तरगत जु ठगारे॥
अब तुम चले ज्ञान-बिष दै हरन जु प्रान हमारे।
ते क्यों भले होहिं सूरप्रभु रूप, बचन, कृत कारे॥२७३॥