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भ्रमरगीत-सार/२७४-मधुकर! तुम रसलंपट लोग

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १८५

 

राग सारंग

मधुकर! तुम रसलंपट लोग।
कमलकोस में रहन निरंतर हमहिं सिखावत जोग।
अपने काज फिरत ब्रज-अंतर निमिष नहीं अकुलात।
पुहुए गए बहुरै बेलिन के नेकु न नेरे जात॥
तुम चंचल हौ, चोर सकल अँग बातन क्यों पतियात?
सूर बिधाता धन्य रच्यो जो मधुप स्याम इकगात॥२७४॥