किधौं घन गरजत नहिं उन देसनि?
किधौं वहि इंद्र हठिहि हरि बरज्यौ, दादुर खाए सेसनि[१]।
किधौं वहि देस बकन मग छाँड्यो, धर[२] बूड़ति न प्रबेसनि।
किधौं वहि देस मोर, चातक, पिक बधिकन बधे बिसेषनि॥
किधौं वहि देस बाल नहिं झूलति गावत गीत सहेसनि[३]।
पथिक न चलत सूर के प्रभु पै जासों कहौं सँदेसनि॥२८०॥