भ्रमरगीत-सार/३१-तेरो बुरो न कोऊ मानै

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भ्रमरगीत-सार  (1926) 
द्वारा रामचंद्र शुक्ल

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तेरो बुरो न कोऊ मानै।

रस की बात मधुप नीरस, सुनु, रसिक होत सो जानै॥
दादुर बसै निकट कमलन के जन्म न रस पहिंचानै।
अलि अनुराग उड़न मन बाँध्यो कहे सुनत नहिं कानै॥
सरिता चलै मिलन सागर को कूल मूल द्रुम भानै[१]
कायर बकै, लोह[२] तें भाजै, लरै जो सूर बखानै॥३१॥

  1. भानै=तोड़ती है।
  2. लोह=लोहा, हथियार।