भ्रमरगीत-सार/३२-घर ही के बाढ़े रावरे

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भ्रमरगीत-सार  (1926) 
द्वारा रामचंद्र शुक्ल

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घर ही के बाढ़े[१] रावरे।

नाहिंन मीत बियोगबस परे अनवउगे[२] अलि बावरे!
भुखमरि जाय चरै नहिं तिनुका सिंह को यहै स्वभाव रे।
स्रवन सुधा-मुरली के पोषे जोग-जहर न खवाव, रे!
ऊधो हमहि सीख का दैहो? हरि बिनु अनत न ठाँव रे!
सूरदास कहा लै कीजै थाही नदिया नाव, रे!॥३२॥

  1. घर ही के बाढ़े=अपने ही घर बढ़बढ़ कर बात करनेवाले।
  2. अनवउगे=अँगवोगे, सहोगे।