भ्रमरगीत-सार/३३२-और सकल अँगन तें ऊधो अँखियाँ अधिक दुखारी

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राग जैतश्री

और सकल अँगन तें, ऊधो! अँखियाँ अधिक दुखारी।
अतिहि पिराति, सिराति न कबहूँ, बहुत जतन करि हारी॥
एकटक रहति, निमेष न लावति, बिथा बिकल भइ भारी।
भरि गइँ विरह-बाय-बिनु दरसन, चितवति रहति उघारी॥
रे रे अलि! गुरु[१] ज्ञान-सलाकहि क्यों सहि सकति तुम्हारी।
सूर सुअंजन आनु रूप-रस आरति हरन हमारी॥३३२॥

  1. गुरु=भारी।