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राग कान्हरो
भूलति हौ कत मीठी बातन। ये अलि हैं उनहीं के संगी, चंचल चित्त, साँवरे गातन॥ वै मुरली धुनि कै जग मोहत, इनकी गुंज सुमन-मन-पातन[१]। वै उठि आन आन मन रंजत, ये उड़ि अनत रंग-रस-रातन॥
वै नवतनु मानिनि गृह-बासी, ये निसिदिवस रहत जलजातन। ये षटपद, वै द्विपद चतुर्भुज, इनमें नाहिं भेद कोउ भाँतन॥ स्वारथ-निपुन सर्बरस भोगी जनि पतियाहु बिरह दुख-दातन[२]। वै माधव, ये मधुप, सूर सुनि, इन दोउन कोऊ घटि घाट[३] ना॥३३३॥