बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २०८
मानौ ढरे एक ही साँचे। नखसिख कमल-नयन की सोभा एक भृगुलता-बाँचे[१]॥ दारुजात[२] कैसे गुन इनमें, ऊपर अन्तर स्याम। हमको धूम-गयन्द[३] बताबत, बचन कहत निष्काम॥ ये सब असित देह धरे जेते ऐसेई, सखि! जानि। सूर एक तें एक आगरे वा मथुरा की खानि॥३३७॥