भ्रमरगीत-सार/३४-लरिकाई को प्रेम, कहौ अलि, कैसे करिकै छूटत
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लरिकाई को प्रेम, कहौ अलि, कैसे करिकै छूटत?
कहाँ कहौं ब्रजनाथ-चरित अब अँतरगति[१] यों लूटत॥
चंचल चाल मनोहर चितवनि, वह मुसुकानि मंद धुनि गावत।
नटवर भेस नंदनंदन को वह बिनोद गृह बन तें आवत॥
चरनकमल की सपथ करति हौं यह सँदेस मोहिं बिष सम लागत।
सूरदास मोहि निमिष न बिसरत मोहन सूरति सोवत जागत॥३४॥
- ↑ अंतरगति=चित्त की वृत्ति, मन।