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भ्रमरगीत-सार/३६३-मधुकर मन सुनि जोग डरै

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २१७

 

राग मलार

मधुकर, मन सुनि जोग डरै।
तुमहू चतुर कहावत अति ही इतो न समुझि परै॥
और सुमन जो अनेक सुगंधित, सीतल रुचि सो करै।
क्यों तू कोकनद बनहिं सरै[] औ और सबै अनरै[]?
दिनकर महाप्रतापपुंज-वर, सबको तेज हरै।
क्यों न चकोर छाँड़ि मृग-अंकहि[] वाको ध्यान करै?
उलटोइ ज्ञान सबै उपदेसत, सुनि सुनि जीय जरै।
जंबू-वृक्ष कहौ क्यों, लंपट! फलवर अंब फरै॥
मुक्ता अवधि मराल प्रान है जौ लगि ताहि चरै।
निघटत निपट, सूर, ज्यों जल बिनु व्याकुल मीन मरै॥३६३॥

  1. सरै=जाता है।
  2. अनरै=अनादर करता है।
  3. मृग-अंक=चंद्रमा।