भ्रमरगीत-सार/३६४-टूटी जुरै बहुत जतनन करि तऊ दोष नहिं जाय
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बिरचि[१] मन बहुरि राच्यो[२] आय।
टूटी जुरै बहुत जतनन करि तऊ दोष नहिं जाय॥
कपट हेतु को प्रीति निरंतर नोइ[३] चोखाई[४] गाय।
दूध फटे जैसे भइ काँजी, कौन स्वाद करि खाय?
केरा पास ज्यों बेर निरंतर हालत दुख दै जाय[५]।
स्वाति-बूँद ज्यों परे फनिक-मुख परत बिषै ह्वै जाय॥
ऐसी केती तुम जौ उनकी कहौ बनाय बनाय।
सूरदास दिगंबर-पुर में कहा रजक-व्यौसाय॥३६४॥