बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ २१८ से – २१९ तक
राग विलावल कर-कंकन तें भुज-टाँड़[१] भई। मधुवन चलत स्याम मनमोहन आवन-अवधि जो निकट दई॥
जोहति पंथ मनावति संकर बासर निसि मोहिं गनत गई। पाती लिखत बिरह तन व्याकुल कागर[२] ह्वै गयो नीरमई॥ ऊधो! मुख के बचनन कहियो[३] हरि सों सूल नितप्रतिहि नई। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस को बियोगिनि बिकल भई॥३६७॥