बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १०३
जौ हरि मिलत नहीं यहि औसर, अवधि बतावत लामी[१]॥ अपनी चोप[२] जाय उठि बैठे और निरस बेकामी[३]? सो कह पीर पराई जानै जो हरि गरुड़ागामी॥ आई उघरि प्रीति कलई सी जैसे खाटी आमी। सूर इते पर अनख[४] मरति हैं, उधो पीवत मामी[५]॥३७॥