बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १०८
मन बच क्रम नँदनँदन सों उर यह दृढ़ करि पकरी॥ जागत सोवत, सपने सौंतुख कान्ह कान्ह जक[२] री। सुनतहि जोग लगत ऐसो अलि! ज्यों करुई ककरी॥ सोई ब्याधि हमैं लै आए देखी सुनी न करी। यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी[३]॥५२॥