भ्रमरगीत-सार/५१-अलि हो! कैसे कहौं हरि के रूप-रसहि

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राग कान्हरो
अलि हो! कैसे कहौं हरि के रूप-रसहि?

मेरे तन में भेद बहुत बिधि रसना न जानै नयन की दसहि॥
जिन देखे ते आहिं बचन बिनु, जिन्हैं बचन दरसन न तिसहि।
बिन बानी भरि उमगि प्रेमजल सुमिरि वा सगुन-जसहि॥
चार बार पछितात यहै मन कहा करै जो बिधि न बसहि[१]
सूरदास अँगन की यह गति को समुझावै पाछपद पसुहि[२]?[३]*॥५१॥

  1. न बसहि=वश में नहीं है।
  2. पाछपद पसुहि=पश्चात्पद पशु को
  3. इसका पाठ 'या छपद पसुहि' जान पड़ता है। अर्थ होगा 'इस
    पशु (मूर्ख) छपद (षट्‌पद, भ्रमर) को कौन समझाए'।