मेरे तन में भेद बहुत बिधि रसना न जानै नयन की दसहि॥
जिन देखे ते आहिं बचन बिनु, जिन्हैं बचन दरसन न तिसहि।
बिन बानी भरि उमगि प्रेमजल सुमिरि वा सगुन-जसहि॥
चार बार पछितात यहै मन कहा करै जो बिधि न बसहि[१]।
सूरदास अँगन की यह गति को समुझावै पाछपद पसुहि[२]?[३]*॥५१॥