बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १०९ से – ११० तक
जाकी रहनि कहनि अनमिल, अलि, कहत समुझि अति थोरे॥
आपुन पद-मकरंद-सुधारस हृदय रहत नित बोरे। हमसों कहत बिरस समझौ, है गगन कूप खनि खोरे[१]। धान को गाँव पयार तें जानौ ज्ञान बिषयरस भोरे। सूर सो बहुत कहे न रहै रस गूलर को फल फोरे[२]॥५६॥