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भ्रमरगीत-सार/८६-सँदेसो कैसे कै अब कहौं

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १२०

 

राग नट
सँदेसो कैसे कै अब कहौं?

इन नैनन्ह या तन को पहरो कब लौं देति रहौं?
जो कछु बिचार होय उर-अंतर रचि पचि सोचि गहौं।
मुख आनत, ऊधो-तन चितवत न सो बिचार, न हौं[]
अब सोई सिख देहु, सयानी! जाते सखहिं लहौं।
सूरदास प्रभु के सेवक सों विनती कै निबहौं॥८६॥

  1. न सो...न हौं=न वह विचार रह जाता
    है और न मैं, अर्थात् सब सुधबुध भूल जाती है।