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ता दिन तें मनो भए दिगंबर इन नैनन के तारे॥ घूँघट-पट छांड़े बीथिन महँ अहनिसि अटत[१] उघारे। सहज समाधि रूपरुचि इकटक टरत न टक तें टारे॥ सूर, सुमति समुझति, जिय जानति, ऊधो! बचन तिहारे। करैं कहा ये कह्यो न मानत लोचन हठी हमारे॥९८॥