साफ़ माथे का समाज/असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध
असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध
पहले कुछ सरल बातें। फिर कुछ कठिन बातें भी। एक तो गांधीजी ने पर्यावरण के बारे में कुछ नहीं लिखा, कुछ नहीं कहा। तब आज जैसा यह विषय, इससे जुड़ी समस्याएं वैसी नहीं थीं, जैसे आज सामने आ गई हैं। पर उन्होंने देश की आजादी से जुड़ी लंबी लड़ाई लड़ते हुए जब भी समय मिला, ऐसा बहुत कुछ सोचा, कहा और लिखा भी जो सूत्र की तरह पकड़ा जा सकता है और उसे पूरे जीवन को संवारने, संभालने और उसे न बिगड़ने के काम में लाया जा सकता है। सभ्यता या कहें कि असभ्यता का संकट सामने आ ही गया था।
गांधीजी के दौर में ही वह विचारधारा अलग-अलग रूपों में सामने आ चुकी थी जो दुनिया के अनेक भागों को गुलाम बनाकर, उनको लूटकर इने-गिने हिस्सों में रहने वाले मुट्ठी-भर लोगों को सुखी और संपन्न बनाए रखना चाहती थी। साम्राज्यवाद इसी का कठिन नाम था। उस दौर में गांधीजी से किसी ने पूछा था कि आज़ादी मिलने के बाद आप भारत को इंग्लैंड जैसा बनाना चाहेंगे तो उन्होंने तुरंत उत्तर दिया था कि छोटे से इंग्लैंड को इंग्लैंड जैसा बनाए रखने में आधी दुनिया को गुलाम बनाना पड़ा था, यदि भारत भी उसी रास्ते पर चला तो न जाने कितनी सारी दुनिया चाहिए होगी। कभी एक और प्रश्न उनसे पूछा गया था, 'अंग्रेज़ी सभ्यता के बारे में आपकी क्या राय है।' गांधीजी का उत्तर था, 'यह एक सुंदर विचार है।'
अहिंसा की वह नई सुगंध गांधी चिंतन, दर्शन में ही नहीं उनके हर छोटे-बड़े काम में मिलती थी। जिससे वे लड़ रहे थे, उससे वे बहुत दृढ़ता के साथ, लेकिन पूरे प्रेम के साथ लड़ रहे थे। वे जिस जनरल के ख़िलाफ़ आंदोलन चला रहे थे, न जाने कब उसके पैर का नाप लेकर उसके लिए जूते की एक सुंदर जोड़ी अपने हाथ से सी रहे थे। पैर के नाप से वे अपने शत्रु को भी भांप रहे थे। इसी तरह बाद के एक प्रसंग में अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर पूना की जेल में भेज दिया था। जेल में उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तिका 'मंगल प्रभात' लिखी। इसमें एकादश व्रतों पर सुंदर टिप्पणियां हैं। ये व्रत है अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शरीरश्रम, अस्वाद, अभय, सर्वधर्म समभाव, स्वदेशी और अस्पृश्यतानिवारण। गांधीजी ने इस सूची में से स्वदेशी पर टिप्पणी नहीं लिखी। एक छोटा-सा नोट लिखकर पाठकों को बताया कि जेल में रहकर वे जेल के नियमों का पालन करेंगे और ऐसा कुछ नहीं लिखेंगे जिसमें राजनीति आए। और स्वदेशी पर लिखेंगे तो राजनीति आएगी ही।
स्वदेशी का यही व्रत पर्यावरण के प्रसंग में गांधीजी की चिंता का, उसकी रखवाली और संवर्धन का एक बड़ा औज़ार था। इस साधन से पर्यावरण के साध्य को पाया जा सकता है, इस बात को गांधीजी ने बिना पर्यावरण का नाम लिए बार-बार कहा है। पर यह इतना सरल नहीं है। ऊपर जिस बात का उल्लेख है वह यही है। इस साधन से तथ्य को पाने के लिए साधना भी चाहिए। गांधीजी साधना का यह अभ्यास व्यक्ति से भी चाहते थे, समाज से भी। गैर ज़रूरी ज़रूरतों को कम करते जाने का अभ्यास बढ़ सके-व्यक्ति और देश के स्तर पर भी यह कठिन काम लगेगा, पर इसी गैर ज़रूरी खपत पर आज की असभ्यता टिकी हुई है। नींव से शिखर तक हिंसा, घृणा और लालच में रंगी-पुती यह असभ्यता गजब की सर्वसम्मति से रक्षित है। विभिन्न राजनैतिक विचारधाराएं, प्रणालियां सब इसे टिकाए रखने में एकजुट हैं। छोटे-बड़े सभी देश अपने घर के आंगन को बाजार में बदलने के लिए आतुर हैं। इस बाज़ार को पाने के लिए वे अपना सब कुछ बेचने को तैयार हैं। अपनी उपजाऊ ज़मीन, अपने घने वन, अपना नीला आकाश, साफ़ नदियां, समुद्र, मछलियां, मेंढक की टांगे, और तो और अपने पुरुष, महिलाएं और बच्चे भी। यह सूची बहुत बढ़ती जा रही है। और इन देशों की सरकारों की शर्म घटती जा रही है।
पहले कोई गर्म दूध से जल जाता था तो छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता था। अब तो देश के देश विकास के या कहें विनाश के गर्म दूध से जल रहे हैं फिर भी विश्व बैंक से और उधार लेकर, अपना पर्यावरण गिरवी रखकर बार-बार गर्म दूध बिना फूंके पी रहे हैं।
तब ऐसे विचित्र दौर में कोई गांधी विचार की तरफ़ क्यों मुड़ेगा? बीस-तीस बरस पहले कुछ लोग 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी मानते थे। आज लगता है कि यही बात एक भिन्न अर्थ में सामने आएगी। विकास की विचित्र चाह हमें एक ऐसी स्थिति तक ले जाएगी जहां साफ़ पानी, साफ़ हवा, साफ़ अनाज और शायद साफ़ माथा, दिमाग भी खतरे में पड़ जाएगा और तब मजबूरी में संभवतः महात्मा गांधी का नाम लेना पड़ेगा। 'यह धरती हर एक की ज़रूरत पूरी कर सकती है' ऐसा विश्वास के साथ केवल गांधीजी ही कह सकते थे क्योंकि अगले ही वाक्य में वे यह भी बता रहे हैं, कि 'यह धरती किसी एक के लालच को पूरा नहीं कर सकती'। ज़रूरत और लालच का, सुगंध और दुर्गंध का यह अंतर हमें गांधीजी ही बता पाए हैं। गांधीजी कल के नायक थे या नहीं, इतिहास जाने। वे आने वाले कल के नायक ज़रूर होंगे।