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साफ़ माथे का समाज/राजरोगियों की ख़तरनाक रज़ामंदी

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दिल्ली: पेंगुइन, पृष्ठ १५८ से – १६२ तक

 

राजरोगियों की ख़तरनाक रज़ामंदी


अच्छे लोग भी जब राज के नज़दीक पहुंचते हैं तो उनको विकास का रोग लग जाता है, भूमंडलीकरण का रोग लग जाता है। उनको लगता है सारी नदियां जोड़ दें, सारे पहाड़ों को समतल कर दें-बुलडोज़र चला कर, उनमें खेती कर लेंगे। मात्र यही ख्याल प्रकृति के विरुद्ध है। मैं बार-बार कह रहा हूं कि यह प्रभु का काम है, सुरेश प्रभु सहित देश के प्रभु बनने के चक्कर में इसे नेता लोग न करें तो अच्छा है। नदियां प्रकृति ही जोड़ती है। गंगा कहीं से निकली, यमुना कहीं से निकली। अगर ऊपर हेलीकॉप्टर से देखें तो एक ही पर्वत की चोटी से ठीक नीचे दो बिंदु से दिखेंगे। वहां उनमें गंगोत्री और यमनोत्री में बहुत दूरी नहीं है। प्रकृति उन्हें वहीं जोड़ देती। लेकिन सब जगह अलग-अलग सिंचाई करके दोनों कहां मिलें, यह प्रकृति ने तय किया था। तब वहां संगम बना। उसके बाद डेल्टा की भी सेवा करनी है नदी को।

'जब दामोदर नदी पर बांध बन रहा था, तब कपिल भट्टाचार्य नाम के एक इंजीनियर थे। वे किसी वैचारिक संगठन से नहीं जुड़े थे। लेकिन वे नदी से जुड़े हुए आदमी थे। उन्होंने अपने विभाग से अनुरोध किया कि दामोदर नदी घाटी योजना को रोक लें। लोगों ने कहा कि तुम क्यों इसे रोकना चाहते हो। इतने करोड़ की योजना है। इससे यह लाभ, वह लाभ होगा। इससे औद्योगिक विकास होगा। भट्टाचार्य ने कहा था कि दामोदर का प्रवाह रोकोगे तो वहां से नीचे डेल्टा तक असर होगा। कोलकाता बंदरगाह नष्ट होगा। उसमें जहाज़ नहीं आ पाएंगे। उसकी गहराई कम हो जाएगी। जिस प्रवाह से सिल्ट बाहर जाती है, उसे महंगे यंत्रों के जरिए बाहर निकालना पड़ेगा। करोड़ों रुपए खर्च होंगे, नदी की गहराई कृत्रिम तरीके से बढ़ाने के लिए। यह भी चार-पांच साल कर पाओगे। फिर तब तक इतनी मिट्टी आ चुकी होगी कि यह भी बंद करना पड़ेगा। तब आपको बंदरगाह बदलना पड़ेगा। तब तक बांग्लादेश नहीं बना था। भट्टाचार्य ने यह भी कहा था कि इस बांध के कारण पड़ोसी देश के भी साथ आपके संबंध बिगड़ते जाएंगे।'

तटबंध और टेक्नोलॉजी से समुद्र का कोई संबंध नहीं होता, वह अपनी विशेष शक्ति रखता है। उसमें मनुष्य हस्तक्षेप करे, विज्ञान के विकास के नाम पर तो सचमुच प्रकृति उसे तिनके की तरह उड़ा देती है। सुंदरवन ऐसे ही समुद्री तूफानों को रोकते हैं। पाराद्वीप का सुंदरवन नष्ट हुआ इसलिए उड़ीसा में चक्रवात आया। इसके आगे 'सुपर' विशेषण लगाना पड़ा था। अथाह जन-धन हानि हुई। अथाह बर्बादी। यह सब देखकर लगता है कि प्रकृति के ख़िलाफ़ अक्षम्य अपराध हो रहे हैं। इनको क्षमा नहीं किया जा सकता। इसकी कोई सज़ा भी नहीं दी जा सकती। नदी जोड़ना उस कड़ी में सबसे भयंकर दर्जे पर किया जाने वाला काम होगा। इसको बिना कटुता के जितने अच्छे ढंग से समझ सकते हैं, समझना चाहिए। नहीं तो कहना चाहिए कि भाई अपने पैर पर तुम कुल्हाड़ी मारना चाहते हो तो मारो लेकिन यह निश्चित पैर पर कुल्हाड़ी है। ऐसा करने वालों के नाम एक शिलालेख में लिख कर दर्ज कर देने चाहिए और कुछ विरोध नहीं हो सके तो किसी बड़े पर्वत की चोटी पर यह शिलालेख लगा दें कि भैया आने वाले दो सौ सालों तक के लिए अमर रहेंगे ये नाम। इनका कुछ नहीं किया जा सका। मैं सर विलियम वेलॉक नामक अंग्रेज़ अधिकारी को याद करना चाहूंगा। 1938 में बंगाल प्रेसीडेंसी के इंजीनियरों के सामने उन्होंने छह भाषण दिए। वेलॉक ने अपने सभी युवा अधिकारियों के सामने कहा था कि 70-80 साल में अंग्रेज़ों ने जो नहरें बनाई हैं, उनका आर्थिक लाभ एक पलड़े में रखो और नुकसान दूसरे पर, तो नुकसान का पलड़ा कहीं ज़्यादा भारी है। हमने पूरे बंगाल की सोनार-संस्कृति को नष्ट किया है। वेलॉक ने कहा था कि उत्पादन घटा है नहरों के आने के बाद।

मध्यप्रदेश में तवा बांध को लेकर यही हुआ। 73-74 के समय विवाद के कारण नर्मदा पर बांध नहीं बन सकते थे तो तवा पर बांध बनाया गया। इस बांध के कारण खेतों में दलदल हो गया। खेती बर्बाद हो गई। काली मिट्टी वाले इलाके में, जहां अनाज भारी मात्रा में होता था, तबाही मच गई। जर्मन विकास बैंक ने इस तबाही के कारण बदनामी को देखते हुए तवा बांध पर लगाए गए पैसे वसूलने की भी ज़रूरत नहीं समझी और चुपचाप खाता बंद कर दिया और दृश्य से ही गायब हो गया। उस समय अकेले गांधीवादी बनवारीलाल चौधरी ने तवा बांध का विरोध किया। फिर बांध के कारण आई विपदा से मुक्ति के लिए मिट्टी बचाओ आंदोलन शुरू किया। ऐसा ही अभियान अब नदियों की रक्षा के लिए चलाना होगा।

वेलॉक ने अस्सी-नब्बे साल पहले कहा था कि नदियों के प्रवाह कम होने से उत्पादन घटा है। बाढ़ की संभावना बढ़ी है। खारापन, लवणीकरण इस इलाके में बढ़ा है। उन्होंने एक और आश्चर्यजनक तथ्य बताया था कि मलेरिया का प्रकोप इस इलाके में केवल नदियों को छेड़ने के बाद आया है। नदी जोड़ो योजना से पूरे डेल्टा के इलाके में यह सब कुछ और बढ़ेगा। आजादी से थोड़ा पहले बंगाल के सिंचाई विभाग के वरिष्ठ अधिकारियों के सामने प्रो. मजूमदार का एक भाषण भी महत्वपूर्ण है। मजूमदार ने कहा था कि यह मानने की गलती या बेवकूफी न करो कि नदी का पानी समुद्र में 'बर्बाद' जाता है। समुद्र में जाकर ये नदियां हम पर उपकार करती हैं, इसलिए इनको देवी माना गया है।'

राज-रोग से कैसे निपटें? इससे निपटने का एक ही तरीका होता है। जब राज हाथ से जाता है तो यह रोग भी चला जाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण रामकृष्ण हेगड़े का है। कर्नाटक में पच्चीस साल पहले वेड़थी नदी पर एक बांध बनाया जा रहा था। किसानों को इस बांध के बनने से उनकी खेती के चक्र के नष्ट होने की आशंका हुई। उन्होंने इसका विरोध किया। कर्नाटक के किसानों ने संगठन बनाकर सरकार से कहा कि उन्हें इस बांध की ज़रूरत ही नहीं है। संपन्नतम खेती वे बिना बांध के ही कर रहे हैं। इस बांध के बनने से उनका सारा चक्र नष्ट हो जाएगा। हेगड़े उस आंदोलन के अगुवा बने। पांच साल तक वे इस आंदोलन के एकछत्र नेता रहे। बाद में राज्य के मुख्यमंत्री बने। मुख्यमंत्री बनने के बाद हेगड़े वेड़थी बांध बनाने के पक्ष में हो गए। लोगों ने कहा कि आप तो इस बांध के प्रमुख विरोधियों में से थे। उन्होंने कहा तब मैं सरकार में नहीं था। अभी मुझे पूरे कर्नाटक की ज़रूरत दिखाई देती है। क्षेत्र विशेष में अब मेरी दिलचस्पी नहीं है। उससे उसको नुकसान भी होगा तो भोगने दो। लेकिन कर्नाटक को इतनी बिजली मिलेगी जितनी ज़रूरत है। औद्योगिकरण होगा। हेगड़े के पाला बदलने के बावजूद किसानों का आंदोलन चलता रहा। हेगड़े का राज चला गया। उनका राज-रोग भी चला गया। लेकिन किसानों का आंदोलन चलता रहा। आंदोलन के कारण ही वह बांध आज भी नहीं बन सका। देश में इस तरह का यह पहला उदाहरण है।

जिनका दिल देश के लिए धड़कता है उन्हें नदी जोड़ो परियोजना पर प्रेमपूर्वक बात करनी चाहिए। ज़रूर कहीं कोई-न-कोई सुनेगा। यह दौर बहुत विचित्र है और इस दौर में सब विचारधाराएं और हर तरह का राजनैतिक नेतृत्व सर्वसम्मति रखता है सिर्फ विनाश के लिए। उन सब में रज़ामंदी है विनाश के लिए। और किसी चीज़ में एक दो वोट से सरकार गिर सकती है, पलट सकती है, बन सकती है, बिगड़ सकती है। लेकिन इस विकास और विनाश वाले मामले में सबकी गज़ब की सर्वसम्मति है। इस सर्वसम्मति के बीच में हमारी आवाज़ दृढ़ता और संयम से उठनी चाहिए। जो बात कहनी है, वह दृढ़ता से कहनी पड़ेगी। प्रेम से कहने के लिए हमें तरीक़ा निकालना पड़ेगा। हमें अब सरकार के पक्ष को समझने की कोई ज़रूरत नहीं है। उसे समझने लगें तो ऐसी भूमिका हमें थका देगी। हम कोई पक्ष नहीं जानना चाहते। हम कहना चाहते हैं कि यह पक्षपात है देश के साथ, देश के भूगोल के साथ, उनके इतिहास के साथ-इसे रोको।