हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण ३ नाटक

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नाटक

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, भारतेंदु के पीछे नाटकों की ओर प्रवृत्ति बहुत कम हो गई। नाम लेने योग्य अच्छे मौलिक नाटक बहुत दिनों तक दिखाई न पड़े। अनुवादों की परंपरा अलबत चलती रही।

बंगभाषा के अनुवाद––बा॰ रामकृष्ण वर्मा द्वारा वीरनारी, कृष्णकुमारी और पद्मावती नाटकों के अनुवाद का उल्लेख पहले हो चुका है। सं॰ १९५० के पीछे गहमर (जि॰ गाजीपुर) के बाबू गोपालराम ने 'वनवीर', 'वभ्रुवाहन', 'देशदशा','विद्याविनोद' और रवींद्र बाबू के 'चित्रांगदा' का अनुवाद किया।

द्वितीय उत्थान के अंतिम भाग में पं॰ रूपनारायण पांडे ने गिरीश बाबू के 'पतिव्रता', क्षीरोदप्रसाद विद्या-विनोद के 'खानजहाँ', रवींद्र बाबू के 'अचलायतन' तथा द्विजेंद्रलाल राय के 'उस पार', 'शाहजहाँ', 'दुर्गादास’, 'ताराबाई' आदि कई नाटकों के अनुवाद प्रस्तुत किए। अनुवाद की भाषा अच्छी खासी हिंदी है और मूल के भावों को ठीक ठीक व्यक्त करती है। इन नाटकों के संबंध में यह समझ रखना चाहिए कि इनमें बंगवासियों की आवेशशील प्रकृति का आरोप अनेक पात्रों में पाया जाता है जिससे बहुत से इतिहास-प्रसिद्ध व्यक्तियों के क्षोभपूर्ण लंबे भाषण उनके अनुरूप नहीं जान पड़ते। प्राचीन ऐतिहासिक वृत्त लेकर लिखे हुए नाटकों में उस काल की संस्कृति और परिस्थिति का सम्यक् अध्ययन नहीं प्रकट होता।

अँगरेजी के अनुवाद––जयपुर के पुरोहित गोपीनाथ एम॰ ए॰ ने १९५० के कुछ आगे पीछे शेक्सपियर के इन तीन नाटकों के अनुवाद किए–– [ ४९६ ]रोमियो जुलियट ('प्रेमलीला' के नाम से), ऐज यू लाइक इट और वेनिस का बैपारी। उपाध्याय बद्रीनारायण चौधरी के छोटे भाई पं॰ श्यामाप्रसाद चौधरी ने सं॰ १९५० में 'मैकबेथ' का बहुत अच्छा अनुवाद गानेंद्र नाटक नाम में प्रकाशित किया। इसके उपरांत सं॰ १९७९ में 'हेम्लेट' का एक अनुवाद 'जयंत' के नाम से निकला जो वास्तव में मराठी अनुवाद का हिंदी अनुवाद था।

संस्कृत के अनुवाद––संस्कृत के नाटकों के अनुवाद के लिए राय बहादुर लाला सीताराम बी॰ ए॰ सदा आदर के साथ व्यक्त किए गए थे। भारतेंदु के मृत्यु के दो वर्ष पहले ही उन्होंने संस्कृत काव्यों के अनुवाद से लुग्गा लगाया और सं॰ १९४० में मेघदूत का अनुवाद घनक्षरी छवी से प्रकाशित किया। इसके उपरांत वे बराबर किसी ना किसी काव्य, नाटक, का अनुवाद करते रहे। सं॰ १९४४ में उनका 'नागानंद' का अनुदान निकला। फिर तो धीरे-धीरे उन्होंने नृच्छकटिक, महावीर-चरित, उत्तर समरचित, मालती माधव मालविकाग्निमित्र का भी अनुवाद कर डाला। यदपि पद्यभाग के अनुवाद में लाला साहब को वैसी सफलता नहीं हुई पर उनकी हिंदी बहुत सीधी साधी सरल और आडंबर शून्य है। संस्कृत का भाव उनमें इस ढंग से लाया गया है कि कही संस्कृतपन या जटिलता नहीं आने पाई है।

भारतेंदु के समय में वे काशी के क्वींस-कालेज-स्कूल के सेकेंड मास्टर थे। पीछे डिप्टी कलेक्टर हुऐ और अंत में शान्तिपूर्वक प्रयाग में आ रहे जहाँ २ जनवरी १९३७ को उनका साकेवास हुआ।

संस्कृत के अनेक पुराण ग्रंथों के अनुवादक, रामचरितमानस, बिहारी सतसई के टीकाकार, सनातन धर्म के प्रसिद्ध व्याख्याता मुरादाबाद के पं॰ ज्वालाप्रसाद मिश्र ने 'वेणी-संहार' और 'अभिज्ञान शाकुन्तल' के हिंदी अनुवाद भी प्रस्तुत किए। संस्कृत की 'रत्नावली नाटिका' हरिश्चंद्र को बहुत पसंद थे। और उसके कुछ अंश का अनुवाद भी उन्होंने किया था, पर पूरा न कर सके थे। भारत-मित्र के प्रसिद्ध संपादक, हिंदी में बहुत ही सिद्धहस्त लेखक बा॰ बालमुकुंद गुप्त ने उक्त नाटिका का पूरा अनुवाद अत्यंत सफलतापूर्वक किया। [ ४९७ ]संवत् १९७० में पंडित सत्यनारायण कविरत्न ने भवभूति के 'उत्तर राम-चरित' का और पीछे 'मालतीमाधव' का अनुवाद किया। कविरत्न के ये दोनों अनुवाद बहुत ही सरस हुए जिनमें मूल भावों की रक्षा का भी पूरा ध्यान रखा गया है। पद्य अधिकतर ब्रजभाषा के सवैयो में है जो पढ़ने में बहुत मधुर हैं। इन पद्यों में खटकनेवाली केवल दो बाते, कहीं कहीं मिलती है। पहली बात तो यह है कि ब्रजभाषा-साहित्य में स्वीकृत शब्दों के अतिरिक्त वे कुछ स्थलों पर ऐसे शब्द लाए है जो एक भूभाग तक ही (चाहे वह ब्रजमंडल के अतर्गत ही क्यों न हो) परिमित हैं। शिष्ट साहित्य में ब्रजमंडल के भीतर बोले जानेवाले सब शब्द नहीं ग्रहण किए गए हैं। ब्रजभाषा देश की सामान्य काव्यभाषा रही है। अतः काव्यो में उसके वे ही शब्द लिए गए हैं जो बहुत दूर तक बोले जाते हैं, और थोड़े बहुत सब स्थानों में समझ लिए जाते है। उदाहरण के लिये 'सिदौसी' शब्द लीजिए जो खास मथुरा-वृंदावन में बोला जाता है, पर साहित्य में नहीं मिलता। दूसरी बात यह कि, कहीं कहीं श्लोको का पूरा भाव लाने के प्रयत्न में भाषा दुरूह और अव्यवस्थित हो गई है।

मौलिक-नाटक––काशी निवासी पंडित् किशोरीलाल गोस्वामी ने प्रथम उत्थान के अंत में दो नाटक लिखे थे––'चौपट-चपेट' और 'मयक मंजरी'। इनमें से प्रथम तो एक प्रहसन था जिसमे चरित्रहीन और छलकपट से भरी स्त्रियों तथा लुच्चो-लफगों आदि के बीभत्स और अश्लील चित्र अंकित किए गए थे। दूसरा पाँच अंकों का नाटक था जो शृंगार रस की दृष्टि से सं॰ १९४८ में लिखा गया था। यह भी साहित्य में कोई विशेष स्थान न प्राप्त कर सका और लोक-विस्मृत हो गया। हिंदी के विख्यात कवि पं॰ अयोध्यासिंह उपाध्याय की प्रवृत्ति इस द्वित्तीय उत्थान के आरंभ में नाटक लिखने की ओर भी हुई थी और उन्होंने 'रुक्मिणी-परिणाय' और 'प्रद्युम्न-विजय व्यायोग' नाम के दो नाटक लिखे थे। ये दोनो नाटक उपाध्याय जी ने हाथ आजमाने के लिये लिखे थे। आगे उन्होंने इस ओर कोई प्रयत्न नहीं किया।

पंडित् ज्वालाप्रसाद मिश्र ने संस्कृत नाटकों के अनुवाद के अतिरिक्त 'सीता-वनवास' नाम का एक नाटक भी लिखा था जिसमे भवभूति के 'उत्तर रामचरित' की कुछ झलक थी। उनके भाई पंडित् बलदेवप्रसाद मिश्र ने [ ४९९ ] यह आगे प्रकट किया जायगा। पहले अनुवादों की बात खतम कर देनी चाहिए।

अनुवाद––सं॰ १९५१ तक बा॰ रामकृष्ण वर्मा उर्दू और अँगरेजी से भी कुछ अनुवाद कर चुके थे––'ठगवृत्तांतमाला' (सं॰ १९४६), 'पुलिस वृत्तांतमाला' (१९४७), 'अकबर' (१९४८), 'अमला वृत्तांतमाला' (१९५१)। 'चितौर चातकी' का बंगभाषा से अनुवाद उन्होंने सं॰ १९५२ में किया। यह पुस्तक चित्तौर के राजवंश की मर्यादा के विरुद्ध समझी गई और इसके विरोध में यहाँ तक आंदोलन हुआ कि सब कापियाँ गंगा में फेंक दी गईं। फिर बाबू कार्त्तिकप्रसाद खत्री ने 'इला' (१९५२) और 'प्रमीला' (१९५३) का अनुवाद किया। 'जया' और 'मधुमालती' के अनुवाद दो एक बरस पीछे निकले।

भारतेंदु-प्रवर्त्तित प्रथम उत्थान के अनुवादकों में भारतेंदुकाल की हिंदी की विशेषता बनी रही। उपर्युक्त तीनों लेखकों की भाषा बहुत ही साधु और संयत रही। यद्यपि उसमें चटपटापन न था पर हिंदीपन पूरा पूरा था। फारसी-अरबी के शब्द बहुत ही कम दिखाई देते हैं, साथ ही संस्कृत के शब्द भी ऐसे ही आए है जो हिंदी के परंपरागत रूप में किसी प्रकार का असामंजस्य नहीं उत्पन्न करते। सारांश यह कि उन्होने 'शूरता', 'चपलता', 'लघुता', 'मूर्खता', 'सहायता', 'दीर्घता', 'मृदुता' ऐसी संस्कृत का सहारा लिया है; 'शौर्य्य', 'चापल्य', 'लाघव', 'मौर्य्य', 'साहाय्य', 'दैर्घ्य' और 'मार्दव' ऐसी संस्कृत का नहीं।

द्वितीय उत्थान के आरभ में हमें बाबू गोपालराम (गहमर) बंगभाषा के गार्हस्थ्य उपन्यासों के अनुवाद में तत्पर मिलते हैं। उनके कुछ उपन्यास तो इस उत्थान (सं॰ १९५७) के पूर्व लिखे गए––जैसे 'चतुर चंचला' (१९५०), 'भानमती' (१९५१), 'नये बाबू' (१९५१)––और बहुत से इसके आरंभ में, जैसे 'बड़ा भाई' (१९५७), 'देवरानी जेठानी' (१९५८) 'दो बहिन' (१९५९), 'तीन पतोहू' (१९६१) और 'सास पतोहू'। भाषा उनकी चटपटी और वक्रतापूर्ण है। ये गुण लाने के लिये कहीं कहीं उन्होंने [ ५०० ] पूरबी शब्दों और मुहावरों का भी बेधड़क प्रयोग किया है। उनके लिखने का ढंग बहुत ही मनोरंजक है। इसी काल के आरंभ में गाजीपुर के मुंशी उदितनारायण लाल के भी कुछ अनुवाद निकले जिनमें मुख्य 'दीपनिर्वाण' नामक ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें पृथ्वीराज के समय का चित्र है।

इस उत्थान के भीतर, बंकिमचंद्र, रमेशचंद्र दत्त, हाराणचंद्र रक्षित, चंडीचरण सेन, शरत् बाबू, चारुचंद्र इत्यादि बंगभाषा के प्रायः सब प्रसिद्ध प्रसिद्ध उपन्यासकारों की बहुत सी पुस्तकों के अनुवाद तो हो ही गए, रवींद्र बाबू के भी 'आँख की किरकिरि' आदि कई उपन्यास हिंदी रूप में दिखाई पड़े। जिनके प्रभाव से इस उत्थान के अंत में आविर्भूत होनेवाले हिंदी के मौलिक उपन्यासकारों का आदर्श बहुत कुछ ऊँचा हुआ। इस अनुवाद-विधान में योग देनेवालों में पडित ईश्वरीप्रसाद शर्मा और पंडित रूपनारायण पांडेय विशेष उल्लेख योग हैं। बंगभाषा के अतिरिक्त उर्दू, मराठी और गुजराती के भी कुछ उपन्यासों के अनुवाद हिंदी में हुए पर बँगला की अपेक्षा बहुत कम। काशी के बा॰ गंगाप्रसाद गुप्त ने 'पूना में हलचल' आदि कई उपन्यास उर्दू से अनुवाद करके निकाले। मराठी से अनूदित उपन्यासों में बा॰ रामचंद्र वर्मा का 'छत्रसाल’ बहुत ही उत्कृष्ट है।

अँगरेजी के दो ही चार उपन्यासों के अनुवाद देखने में आए-जैसे, रेनल्ड्स कृत 'लैला' और 'लंडन-रहस्य'। अँगरेजी के प्रसिद्ध उपन्यास 'टाम काका की कुटिया' का भी अनुवाद हुआ।

अनुवादों की चर्चा समाप्त कर अब हम मौलिक उपन्यासों को लेते हैं।

पहले मौलिक उपन्यास लेखक, जिनके उपन्यासों को सर्वसाधारण में धूम हुई, काश के बाबू देवकीनंदन खत्री थे। द्वितीय उत्थान-काल के पहले ही ये नरेंद्रमोहिनी, कुसुमकुमारी, वीरेंद्रवीर आदि कई उपन्यास लिख चुके थे। उक्त काल के आरंभ में तो 'चद्रकांता संतति' नामक इनके-ऐयारी के उपन्यासों की चर्चा चारों ओर इतनी फैली कि जो लोग हिंदी की किताबें नहीं पढ़ते थे वे भी इन नामों से परिचित हो गए। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि इन उपन्यासों का लक्ष्य केवल घटना-वैचित्र्य रहा, रससंचार,