हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण ३ उपन्यास

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[ ५०० ] पूरबी शब्दों और मुहावरों का भी बेधड़क प्रयोग किया है। उनके लिखने का ढंग बहुत ही मनोरंजक है। इसी काल के आरंभ में गाजीपुर के मुंशी उदितनारायण लाल के भी कुछ अनुवाद निकले जिनमें मुख्य 'दीपनिर्वाण' नामक ऐतिहासिक उपन्यास है। इसमें पृथ्वीराज के समय का चित्र है।

इस उत्थान के भीतर, बंकिमचंद्र, रमेशचंद्र दत्त, हाराणचंद्र रक्षित, चंडीचरण सेन, शरत् बाबू, चारुचंद्र इत्यादि बंगभाषा के प्रायः सब प्रसिद्ध प्रसिद्ध उपन्यासकारों की बहुत सी पुस्तकों के अनुवाद तो हो ही गए, रवींद्र बाबू के भी 'आँख की किरकिरि' आदि कई उपन्यास हिंदी रूप में दिखाई पड़े। जिनके प्रभाव से इस उत्थान के अंत में आविर्भूत होनेवाले हिंदी के मौलिक उपन्यासकारों का आदर्श बहुत कुछ ऊँचा हुआ। इस अनुवाद-विधान में योग देनेवालों में पडित ईश्वरीप्रसाद शर्मा और पंडित रूपनारायण पांडेय विशेष उल्लेख योग हैं। बंगभाषा के अतिरिक्त उर्दू, मराठी और गुजराती के भी कुछ उपन्यासों के अनुवाद हिंदी में हुए पर बँगला की अपेक्षा बहुत कम। काशी के बा॰ गंगाप्रसाद गुप्त ने 'पूना में हलचल' आदि कई उपन्यास उर्दू से अनुवाद करके निकाले। मराठी से अनूदित उपन्यासों में बा॰ रामचंद्र वर्मा का 'छत्रसाल’ बहुत ही उत्कृष्ट है।

अँगरेजी के दो ही चार उपन्यासों के अनुवाद देखने में आए-जैसे, रेनल्ड्स कृत 'लैला' और 'लंडन-रहस्य'। अँगरेजी के प्रसिद्ध उपन्यास 'टाम काका की कुटिया' का भी अनुवाद हुआ।

अनुवादों की चर्चा समाप्त कर अब हम मौलिक उपन्यासों को लेते हैं।

पहले मौलिक उपन्यास लेखक, जिनके उपन्यासों को सर्वसाधारण में धूम हुई, काश के बाबू देवकीनंदन खत्री थे। द्वितीय उत्थान-काल के पहले ही ये नरेंद्रमोहिनी, कुसुमकुमारी, वीरेंद्रवीर आदि कई उपन्यास लिख चुके थे। उक्त काल के आरंभ में तो 'चद्रकांता संतति' नामक इनके-ऐयारी के उपन्यासों की चर्चा चारों ओर इतनी फैली कि जो लोग हिंदी की किताबें नहीं पढ़ते थे वे भी इन नामों से परिचित हो गए। यहाँ पर यह कह देना आवश्यक है कि इन उपन्यासों का लक्ष्य केवल घटना-वैचित्र्य रहा, रससंचार, [ ५०१ ] भावविभूति या चरित्रचित्रण नहीं। ये वास्तव में घटना-प्रधान कथानक या किस्से हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं, इससे ये साहित्य-कोटि में नहीं आते। पर हिंदी-साहित्य के इतिहास में बाबू देवकीनंदन का स्मरण इस बात के लिये सदा बना रहेगा कि जितने पाठक उन्होंने उत्पन्न किए उतने किसी और ग्रंथकार ने नहीं। चंद्रकांता पढ़ने के लिये ही न जाने कितने उर्दू-जीवी लोगो ने हिंदी सीखी। चंद्रकांता पढ़ चुकने पर वे "चंद्रकांता की किस्म की कोई किताब" ढूँढ़ने में परेशान रहते थे। शुरू शुरू में 'चद्रकांता' और 'चंद्रकाता संतति' पढ़कर न जाने कितने नवयुवक हिंदी के लेखक हो गए। चंद्रकांता पढ़कर वे हिंदी की और प्रकार की साहित्यिक पुस्तकें भी पढ़ चले और अभ्यास हो जाने पर कुछ लिखने भी लगे।

बाबू देवकीनंदन के प्रभाव से "तिलस्म" और "ऐयारी" के उपन्यासों की हिंदी में बहुत दिनों तक भरमार रही और शायद अभी तक यह शौक बिल्कुल, ठंढा नहीं हुआ है। बाबू देवकीनंदन के तिलस्मी रास्ते पर चलने वालों में बाबू हरिकृष्ण जौहर विशेष उल्लेख योग्य हैं।

बाबू देवकीनंदन के संबंध में इतना और कह देना जरूरी है कि उन्होंने ऐसी भाषा का व्यवहार किया है जिसे थोड़ी हिंदी और थोड़ी उर्दू पढ़े लोग भी समझ लें। कुछ लोगों का यह समझना कि उन्होंने राजा शिवप्रसाद वाली उस पिछली 'आम-फहम' भाषा का बिलकुल अनुसरण किया जो एकदम उर्दू की ओर झुक गई थी, ठीक नहीं। कहना चाहें तो यों कह सकते हैं कि उन्होंने साहित्यिक हिंदी न लिखकर "हिंदुस्तानी" लिखी, जो केवल इसी प्रकार की हलकी रचनाओं में काम दे सकती है।

उपन्यासों का ढेर लगा देनेवाले दूसरे मौलिक उपन्यासकार पंडित किशोरीलाल गोस्वामी (जन्म सं॰ १९२२––मृत्यु १९८९) हैं, जिनकी रचनाएँ साहित्य-कोटि में आती हैं। इनके उपन्यासों में समाज के कुछ सजीव चित्र, वासनाओं के रूप-रंग, चित्ताकर्षक वर्णन और थोड़ा बहुत 'चरित्र-चित्रण' भी अवश्य पाया जाता है। गोस्वामीजी संस्कृत के अच्छे साहित्य-मर्मज्ञ तथा हिंदी [ ५०२ ] के पुराने कवि और लेखक थे। संवत् १९५५ में उन्होंने "उपन्यास" मासिक पत्र निकाला और इस द्वितीय उत्थान-काल के भीतर ६५, छोटे बड़े उपन्यास लिखकर प्रकाशित किए। अतः साहित्य की दृष्टि से उन्हें हिंदी का पहला उपन्यासकार कहना चाहिए। इस द्वितीय उत्थान-काल के भीतर उपन्यासकार इन्हीं को कह सकते हैं। और लोगो ने भी मौलिक उपन्यास लिखे पर वे वास्तव में उपन्यासकार न थे। और चीजें लिखते-लिखते उपन्यास की ओर जा पड़ते थे। पर गोस्वामीजी वहीं घर करके बैठ गए। एक क्षेत्र इन्होंने अपने लिये चुन लिया और उसी में रम गए। यह दूसरी बात है कि उनके बहुत से उपन्यास का प्रभाव नवयुवक पर बुरा पड़ सकता है, उनमें अन्य वासनाएँ व्यक्त करने वाले दृश्यों की अपेक्षा निम्न कोटि की वासनाएँ प्रकाशित करनेवाले दृश्य अधिक भी हैं और चटकीले भी। इस बात की शिकायत 'चपला' के संबंध में अधिक हुई थी।

एक और बात जरा खटकती है। वह है उनका भाषा के साथ मजाक। कुछ दिन पीछे इन्हें उर्दू लिखने का शौक हुआ। उर्दू भी ऐसी वैसी नहीं, उर्दू-ए-मुअल्ला। इस शौक के कुछ आगे पीछे उन्होंने 'राजा शिवप्रसाद का जीवनचरित' लिखा जो 'सरस्वती' के आरंभ के ३ अंकों में (भाग १ संख्या २, ३, ४) निकला। उर्दू जवान और शेर-सखुन की बेढंगी नकल से, जो असल से कभी कभी साफ अलग हो जाती है, उनके बहुत से उपन्यासों का साहित्यिक गौरव घट गया है। गलत या गलत मानी में लाए हुए शब्द भाषा को शिष्टता के दरजे से गिरा देते हैं। खैरियत यह हुई कि अपने सब उपन्यासों को आपने यह मँगनी का लिबास नहीं पहनाया। 'मल्लिका देवी या बंग-सरोजिनी' में संस्कृत प्रायः समास-बहुला भाषा काम में लाई गई है। इन दोनों प्रकार की लिखावटों को देखकर कोई विदेशी चकपकाकर पूछ सकता है कि "क्या दोनो हिंदी हैं?" "हम यह भी कर सकते हैं, वह भी कर सकते हैं" इस हौसले ने जैसे बहुत से लेखकों को किसी एक विषय पर पूर्ण अधिकार के साथ जमने न दिया, वैसे ही कुछ लोगों की भाषा को बहुत कुछ डाँवाडोल रखा, कोई एक टेढ़ा-सीधा रास्ता पकड़ने न दिया। [ ५०३ ]गोस्वामीजी के ऐतिहासिक उपन्यासो से भिन्न भिन्न समयों की सामाजिक और राजनीतिक अवस्था का अध्ययन और संस्कृति के स्वरूप का अनुसंधान नहीं सूचित होता। कहीं कहीं तो कालदोष तुरंत ध्यान में आ जाते है––जैसे वहाँ जहाँ अकबर के सामने हुक्के या पेचवान रखे जाने की बात कही गई हैं। पंडित किशोरीलाल गोस्वामी के कुछ उपन्यासों के नाम ये है––तारा, चपला, तरुण-तपस्विनी, रजिया बेगम, लीलावती, राजकुमारी, लवंगलता, हृदयहारिणी, हीराबाई, लखनऊ की कब्र, इत्यादि इत्यादि।

प्रसिद्ध कवि और गद्य लेखक पंडित् अयोध्यासिंहजी उपाध्याय ने भी दो उपन्यास ठेठ हिंदी में लिखे––'ठेठ हिंदी का ठाट' (सं॰ १९५६) और 'अधखिला फूल' (१९६४)। पर ये दोनों पुस्तकें भाषा के नमूने की दृष्टि से लिखी गई, औपन्यासिक कौशल की दृष्टि से नहीं। उनकी सबसे पहले लिखी पुस्तक "वेनिस का बाँका" में जैसे भाषा संस्कृतपन की सीमा पर पहुँची हुई थी वैसी ही इन दोनों पुस्तकों में ठेठपन की हद दिखाई देती है। इन तीनो पुस्तकों को सामने रखने पर पहला ख्याल यही पैदा होता है कि उपाध्यायजी क्लिष्ट, संस्कृतप्राय भाषा भी लिख सकते है और सरल से सरल ठेठ हिंदी भी। अधिकतर इसी भाषा-वैचित्र्य पर ख्याल जमकर रह जाता है। उपाध्यायजी के साथ पंडित् लज्जाराम मेहता का भी स्मरण आता है जो अखबार-नवीसी के बीच बीच में पुरानी हिंदू-मर्यादा, हिंदूधर्म और हिंदू पारिवारिक व्यवस्था की सुंदरता और समीचीनता दिखाने के लिये छोटे बड़े उपन्यास भी लिखा करते थे। उनके उपन्यासों में मुख्य ये हैं––'धूर्त रसिकलाल' (सं॰ १९५६), हिंदू गृहस्थ, आदर्श दंपति (१९६१), बिगड़े का सुधार (१९६४) और आदर्श हिंदू (१९७२) ये दोनों महाशय वास्तव में उपन्यासकार नहीं। उपाध्यायजी कवि हैं और मेहताजी पुराने अखबार-नवीस।

काव्य-कोटि में आनेवाले भावप्रधान उपन्यास, जिनमें भावों या मनोविकारों की प्रगल्भ और वेगवती व्यजना का लक्ष्य प्रधान हो––चरित्र-चित्रण या घटना वैचित्र्य का लक्ष्य नहीं––हिंदी में न देख, और बंगभाषा में काफी देख, बाबू ब्रजनंदनसहाय बी॰ ए॰ ने दो उपन्यास इस ढंग के प्रस्तुत किए––"सौंदर्योपासक" और "राधाकांत" (सं॰ १९६९)।