हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण २ रीति-ग्रंथकार कवि

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प्रकरण २
रीति-ग्रंथकार कवि

हिंदी साहित्य की गति का ऊपर जो संक्षिप्त उल्लेख हुआ उससे रीतिकाल की सामान्य प्रकृति का पता चल सकता है। अब इस काल के मुख्य-मुख्य कवियों का विवरण दिया जाता है।

(१) चिंतामणि त्रिपाठी––ये तिकवाँपुर (जि॰ कानपुर) के रहनेवाले और चार भाई थे––चिंतामणि, भूषण, मतिराम और जटाशंकर। चारों कवि थे, जिनमें प्रथम तीन तो हिंदी साहित्य में बहुत यशस्वी हुए। इनके पिता का नाम रत्नाकर त्रिपाठी था। कुछ दिन से यह विवाद उठाया गया है कि भूषण न तो चिंतामणि और मतिराम के भाई थे, न शिवाजी के दरबार में थे। पर इतनी प्रसिद्ध बात का जब तक पर्याप्त विरुद्ध प्रमाण न मिले तब तक वह अस्वीकार नहीं की जा सकती। चिंतामणिजी का जन्मकाल संवत् १६६६ के लगभग और कविता-काल संवत् १७०० के आसपास ठहरता है। इनका 'कविकुलकल्पतरु' नामक ग्रंथ सं॰ १७०७ का लिखा है। इनके संबंध में शिवसिंहसरोज में लिखा है कि ये "बहुत दिन तक नागपुर में सूर्य्यवंशी भोसला मकरंद शाह के यहाँ रहे और उन्हीं के नाम पर 'छंदविचार' नामक पिंगल का बहुत भारी ग्रंथ बनाया और 'काव्य-विवेक', 'कविकुल-कल्पतरू', 'काव्यप्रकाश, 'रामायण' ये पाँच ग्रंथ इनके बनाए हमारे पुस्तकालय में मौजूद हैं। इनकी बनाई रामायण कवित्त और नाना अन्य छंदों मे बहुत अपूर्व है। बाबू रुद्रसाहि सोलंकी, शाहजहाँ बादशाह और जैनदी अहमद ने इनको बहुत दान दिए हैं। इन्होंने अपने ग्रंथ में कहीं-कहीं अपना नाम मणिमाल भी कहा है।"

ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि चिंतामणि ने काव्य के सब अंगों पर ग्रंथ लिखे। इनकी भाषा ललित और सानुप्रास होती थी। अवध के पिछले कवियों की भाषा देखते हुए इनकी ब्रजभाषा विशुद्ध दिखाई पड़ती है। विषय-वर्णन [ २४३ ]की प्रणाली भी मनोहर है। ये वास्तव में एक उत्कृष्ट कवि थे। रचना के कुछ नमूने लीजिए––

येई उधारत हैं तिन्हैं जे परे मोह-महोदधि के जल-फेरे।
जे इनको पल ध्यान धरैं मन, ते न परैं कबहूँ जम घेरे
राजै रमा रमनी उपधान, अझै बरदान रहैं जन नेरे।
हैं बलभार उदंड भरे, हरि के भुजदंड सहायक मेरे॥


इक आजु मैं कुंदन-बेलि लखी, मनिमंदिर की रुचिबृंद भरैं।
कुरविंद के पल्लव इंदु तहाँ, अरविंदन तें मंकरद झरैं॥
उत बुंदन के मुकुतागन ह्वै, फल सुंदर भ्वै पर आनि परैं।
लखि यों दुति कंद अनंद कला, नदनंद सिलाद्रव रूप धरैं॥


आँखिन मूँदिबे के मिस आनि, अचानक पीठ उरोज लगावै।
केहूँ कहूँ मुसकाथ चितै, अँगराय अनूपम अंग दिखावै॥
नाह हुई छले सों छतियाँ, हँसि भौंह चढ़ाय अनंद बढावै।
जोबन के मद मत्त तिया,हित सों पति को नितं। चित्त चुरावै॥


(२) बेनी––ये असनी के बंदीजन थे और संवत् १७०० के आसपास विद्यमान थे। इनका कोई ग्रंथ नहीं मिलता पर फुटकल कवित्त बहुत से सुने जाते है जिनसे यह अनुमान होता है कि इन्होंने नखशिख और षट्ऋतु पर पुस्तकें लिखी होगी। कविता इनकी साधारणतः अच्छी होती थी; भाषा चलती होने पर भी अनुप्रासयुक्त होती थी। दो उदाहरण नीचे दिए जाते है––

छहरै सिर पै छबि मोरपखा, उनकी नथ के मुकुता थहरैं।
फहरै पियरो पट बेनी इतै, उनकी चुनरी के झबा झहरैं॥
रसरंग भिरै अभिरे हैं तमाल, दोऊ रसख्याल चहैं लहरैं।
नित ऐसे सनेह सों राधिका स्याम हमारे हिए में सदा बिहरैं।


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कवि बेनी नई उनई है घटा, मोरवा वन बोलन कूकन री।
छहरै बिजुरी छिति-मंडल छ्वै, लहरै मन मैन-भभूकन री॥
पहिरौ चुनरी चुनिकै दुलही, सँग लाल के झुलहु झूकन री।
ऋतु पावस यों ही बितावत हौं, मरिहौ, फिर बावरि! हूकन री॥

(३) महाराज जसवंतसिंह––ये मारवाड़ के प्रसिद्ध महाराज थे जो अपने समय के सबसे प्रतापी हिंदू नरेश थे और जिनका भय औरंगजेब को बराबर बना रहता था। इनका जन्म संवत् १६८३ में हुआ। ये शाहजहाँ के समय में ही कई लड़ाइयों पर जा चुके थे। ये महाराज गजसिंह के दूसरे पुत्र थे और उनकी मृत्यु के उपरांत संवत् १६९५ में गद्दी पर बैठे। इनके बड़े भाई अमरसिंह अपने उद्धत स्वभाव के कारण पिता द्वारा अधिकारच्युत कर दिए गए थे। महाराज जसवंतसिंह बड़े अच्छे साहित्यमर्मज्ञ और तत्त्वज्ञान-संपन्न पुरुष थे। उनके समय में राज्य भर में विद्या की बड़ी चर्चा रही और अच्छे-अच्छे कवियों और विद्वानों का बराबर समागम होता रहा। महाराज ने स्वयं तो ग्रंथ लिखे ही; अनेक विद्वानों और कवियों से न जाने कितने ग्रंथ लिखाए। औरंगजेब ने इन्हें कुछ दिनों के लिये गुजरात का सूबेदार बनाया था। वहाँ से शाइस्ताखाँ के साथ ये छत्रपति शिवाजी के विरुद्ध दक्षिण भेजे गए थे। कहते हैं कि चढ़ाई में शाइस्ताखाँ की जो दुर्गति हुई वह बहुत कुछ इन्हीं के इशारे से। अंत में ये अफगानों को सर करने के लिये काबुल भेजे गए जहाँ संवत् १७३५ में इनका परलोकवास हुआ।

ये हिंदी-साहित्य के प्रधान आचार्यों में माने जाते हैं और इनका 'भाषा-भूषण' ग्रंथ अलंकारों पर एक बहुत ही प्रचलित पाठ्य ग्रंथ रहा है। इस ग्रंथ को इन्होंने वास्तव में आचार्य्य के रूप में लिखा है, कवि के रूप में नहीं। प्राक्कथन में इस बात का उल्लेख हो चुका है कि रीतिकाल के भीतर जितने लक्षण-ग्रंथ लिखनेवाले हुऐ वे वास्तव में कवि थे और उन्होंने कविता करने के उद्देश्य से ही वे ग्रंथ लिखे थे, न कि विषय-प्रतिपादन की दृष्टि से। पर महाराज जसवंतसिंहजी इस नियम के अपवाद थे। वे आचार्य्य की हैसियत से ही हिंदी-साहित्य क्षेत्र मे आए, कवि की हैसियत से नही। उन्होंने अपना 'भाषा-भूषण' [ २४५ ]बिलकुल 'चंद्रालोक' की छाया पर बनाया और उसी की संक्षिप्त प्रणाली का अनुसरण किया है। जिस प्रकार चंद्रालोक में प्रायः एक ही श्लोक के भीतर लक्षण और उदाहरण दोनों का सन्निवेश है उसी प्रकार भाषा-भूषण में भी प्रायः एक ही दोहे में लक्षण और उदाहरण दोनों रखे गए हैं। इससे विद्यार्थियों को अलंकार कंठ करने में बड़ा सुबीता हो गया और 'भाषा-भूषण' हिंदी काव्य रीति के अभ्यासियों के बीच वैसा ही सर्वप्रिय हुआ जैसा कि संस्कृत के विद्यार्थियों के बीच चंद्रालोक। भाषा-भूषण बहुत छोटा सा ग्रंथ है।

भाषा-भूषण के अतिरिक्त जो और ग्रंथ इन्होंने लिखे हैं वे तत्त्वज्ञान-संबंधी हैं। जैसे––अपरोक्ष-सिद्धांत, अनुभव-प्रकाश, आनंद-विलास, सिद्धांत-बोध, सिद्धांतसार, प्रबोधचंद्रोदय नाटक। ये सब ग्रंथ भी पद्य में ही हैं, जिनसे पद्य-रचना की पूरी निपुणता प्रकट होती है। पर साहित्य से जहाँ तक संबंध है, ये आचार्य या शिक्षक के रूप में ही हमारे सामने आते हैं। अंलकार-निरूपण की इनकी पद्धति का परिचय कराने के लिये 'भाषा-भूषण' के दोहे नीचे दिए जाते हैं-

अत्युक्ति––अलंकार अत्युक्ति यह, बरनत अतिसय रूप।
जाचक तेरे दान तें भए कल्पतरु भूप॥


पर्य्यस्तापह्नुति––पर्यस्त जु गुन एक को, और विषय आरोप।
होइ सुधाधर नाहिं यह, बदन सुधाधर ओप॥

ये दोहे चंद्रालोक के इन श्लोकों की स्पष्ट छाया हैं।

अत्युक्तिरद्भुतातथ्यशौर्योदार्यादिवर्णनम्।
त्वयि दातरि राजेंद्र याचका कल्पशाखिनः॥
पर्यस्तापह्नुतिर्यत्र, धर्ममात्रं निषिध्यते।
नायं सुधांशुः किं तर्हि सुधांशुः प्रेयसीमुखम्॥

भाषा-भूषण पर पीछे तीन टीकाएँ रची गईं––'अलंकार रत्नाकर' नाम की टीका, जिसे बंसीधर ने संवत् १७९२ में बनाया, दूसरी टीका प्रतापसाहि की और तीसरी गुलाब कवि की 'भूषण-चंद्रिका'।