हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण २ बिहारीलाल

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[ २४६ ](४) बिहारीलाल-ये माथुर चौबे कहे जाते हैं और इनका जन्म ग्वालियर के पास बसुवा गोविंदपुर गाँव में संवत् १६६० के लगभग माना जाता है। एक दोहे के अनुसार इनकी बाल्यावस्था बुंदेलखंड में बीती और तरुणावस्था में ये अपनी ससुराल मथुरा में आ रहे। अनुमानतः ये संवत् १७२० तक वर्तमान रहे। ये जयपुर के मिर्जा राजा जयसाह (महाराज जयसिंह) के दरबार में रहा करते थे। कहा जाता हैं कि जिस समय ये कवीश्वर जयपुर पहुँचे उस समय महाराज अपनी छोटी रानी के प्रेम में इतने लीन रहा करते थे कि राजकाज देखने के लिये महलों के बाहर निकलते ही न थे। इसपर सरदार की सलाह से बिहारी ने यह दोहा किसी प्रकार महाराज के पास भीतर भिजवाया-

नहिँ पराग नहिँ मधुर मधु, नहिँ विकास यहि काल।
अली कली ही सोँ बँध्यो, आगे कौन हवाल॥

कहते है कि इसपर महाराज बाहर निकले और तभी से बिहारी का मान बहुत अधिक बढ़ गया। महाराज ने बिहारी को इसी प्रकार के सरस दोहे बनाने की आज्ञा दी। बिहारी दोहे बनाकर सुनाने लगे और उन्हें प्रति दोहे पर एक एक अशरफी मिलने लगी। इस प्रकार सात सौ दोहे बने जो संगृहीत होकर 'बिहारी-सतसई' के नाम से प्रसिद्ध हुए।

शृंगाररस के ग्रंथों में जितनी ख्याति और जितना मान 'बिहारी-सतसई' का हुआ उतना और किसी का नहीं है इसका एक एक दोहा हिंदी-साहित्य में एक एक रत्न माना जाता है। इसकी पचासों टीकाएँ रची गईं। इन टीकाओं में ४-५ टीकाएँ तो बहुत प्रसिद्ध हैं-कृष्ण कवि की टीका जो कवित्तो में है, हरिप्रकाश टीका, लल्लूजी लाल की लालचंद्रिका, सरदार कवि की टीका और सूरति मिश्र की टीका (इन टीकाओं के अतिरिक्त बिहारी के दोहों के भाव पल्लवित करनेवाले छप्पय, कुंडलिया, सवैया आदि कई कवियों ने रचे। पठान सुलतान की कुंडलिया इन दोहों पर बहुत अच्छी है, पर अधूरी है। भारतेदु हरिश्चंद्र ने कुछ और कुंडलिया रचकर पूर्ति-करनी चाही थी। पं॰ अंबिकादत्त व्यास ने अपने 'बिहारी बिहार' में सब दोहों के भावों को पल्लवित करके रोला छंद लगाए हैं। पं॰ परमानंद ने 'शृंगारसप्तशती' के नाम से दोहों का संस्कृत [ २४७ ] अनुवाद किया है। यहाँ तक कि उर्दू शेरों में भी एक अनुवाद थोड़े दिने हुए बुदेलखंड के मुंशी देवीप्रसाद (प्रीतम) ने लिखा। इस प्रकार बिहारी-संबंधी एक अलग साहित्य ही खड़ा हो गया है। इतने से ही इस अर्थ की सर्वप्रियता का अनुमान हो सकता है। बिहारी का सबसे उत्तम और प्रामाणिक संस्करण बड़ी मार्मिक टीका के साथ थोड़े दिन हुए प्रसिद्ध साहित्य-मर्मज्ञ और ब्रजभाषा के प्रधान आधुनिक कवि बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर ने निकाला। जितने श्रम और जितनी सावधानी से यह संपादित हुआ है, आज तक हिंदी का और कोई ग्रंथ नहीं हुआ।

बिहारी ने सतसई के अतिरिक्त और कोई ग्रंथ नहीं लिखा। यही एक ग्रंथ उनकी इतनी बड़ी कीर्ति का आधार है। यह बात साहित्य क्षेत्र के इस तथ्य की स्पष्ट घोषणा कर रहा है कि किसी कवि का यश उसकी रचनाओं के परिमाण के हिसाब से नहीं होता, गुण के हिसाब से होता है। मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है, इसमें कोई संदेह नहीं। मुक्तक में प्रबंध के समान रस की धारा नहीं रहती जिसमें कथा-प्रसंग की परिस्थिति में अपने को भूला हुआ पाठक मग्न हो जाता है और हृदय में एक स्थायी प्रभाव ग्रहण करता है। इसमें तो रस के ऐसे छींटे पड़ते हैं जिनसे हृदय-कालिका थोड़ी देर के लिये खिल उठती है। यदि प्रबंधकाव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है। इसी से वह सभी समाजों के लिये अधिक उपयुक्त होता है। उसमें उत्तरोत्तर अनेक दृश्यों द्वारा संघटित पूर्ण जीवन या उसके किसी एक पूर्ण अंग का प्रदर्शन नहीं होता, बल्कि कोई एक रमणीय खंडदृश्य इस प्रकार सामने ला दिया जाता है कि पाठक या श्रोता कुछ क्षणों के लिये मंत्रमुग्ध सा हो जाता है। इसके लिये कवि को मनोरम वस्तुओं और व्यापारों का एक छोटा सा स्तवक कल्पित करके उन्हें अत्यंत संक्षिप्त और सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है। अतः जिस कवि में कल्पना की समाहार-शक्ति के साथ भाषा की समास-शक्ति जितनी ही अधिक होगी उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से वर्तमान थी। इसी से वे दोहे ऐसे छोटे [ २४८ ] छंद में इतना रस भर सके हैं। इनके दोहे क्या हैं रस के छोटे-छोटे छींटे हैं। इसी से किसी ने कहा है-

सतसैया के दोहरे ज्यों लावक के तीर। देखत में छोटे लगैं बैधैं सकल सरीर॥

बिहारी की रसव्यंजना का पूर्ण वैभव उनके अनुभवों के विधान में दिखाई पड़ता है। अधिक स्थलों पर तो इनकी योजना की निपुणता और उक्ति कौशल के दर्शन होते हैं, पर इस विधान में इनकी कल्पना की मधुरता झलकती है। अनुभावों और हावों की ऐसी सुंदर योजना कोई शृंगारी कवि नहीं कर सका है। नीचे की हावभरी सजीव मूर्तियाँ देखिए-

बतरस-लालच लाल की, मुरली धरी लुकाइ। सौंह करै, भौंहनि हंसै, देन कहै, नटि जाई॥
नासा मोरि, नचाइ दृग, करी कका की सौंह। काँटे सी कसकै हिए, गड़ी कटीली भौंह॥
ललन चलन सुनि पलन में, अँसुवा झलकै आइ। भई लखाइ न सखिन्ह हू, झूठे ही जमुहाइ॥

भाव व्यंजना या रस-व्यंजना के अतिरिक्त बिहारी ने वस्तु-व्यंजना का सहारा भी बहुत लिया है-विशेषतः शोभा या कांति, सुकुमारता, विरहताप, विरह की क्षीणता आदि के वर्णन से कहीं कहीं इनकी वस्तु-व्यंजना औचित्य की सीमा का उल्लंघन करके खेलवाड़ के रूप में हो गई है, जैसे-इन दोहों में-

पत्रा ही तिथि पाइए, वा घर के चहुँ पास। नित प्रति पून्योई रहै, आनन-ओप-उजास॥
छाले परिबे के डरन सकै न हाथ छुँवाई। झिझकति हियैं गुलाब कैं, झवा झवावति पाइ॥
इत आवति, चलि जात उत, चली छ सातक हाथ। चढ़ी हिंडोरे सी रहै, लगी उसासन साथ॥
सीरे जतननि सिसिर ऋतु, सहि बिरहिनि तनताप। बसिबै कौ ग्रीषम दिनन, परयो परोसिनि पाप॥
आड़े दै आले बसन, जाड़े हूँ की राति। साहस कै कै नेहबस, सखी सबै ढिंग जाति॥

अनेक स्थानों पर इनके व्यंग्यार्थ को स्फुट करने के लिये बड़ी क्लिष्ट कल्पना अपेक्षित होती है। ऐसे स्थलों पर केवल रीति या रूढ़ि ही पाठक की सहायता करती है और उसे एक पूरे प्रसंग का आक्षेप करना पड़ता है। ऐसे दोहे बिहारी में बहुत से हैं। पर यहाँ दो एक उदाहरण ही पर्याप्त होंगे-

ढीठि परोसिनि ईठ ह्वै कहे जु गहे सयान। सबै संदसे कहि कह्यो मुसकाहट मैं मान॥
नए बिरह बढ़ती बिथा, खरी बिकल जिय बाल। बिलखी देखि परोसिन्यौं हरषि हँसी तिहि काल॥

[ २४९ ]इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि बिहारी का 'गागर में सागर' भरने को जो गुण इतना प्रसिद्ध है वह बहुत कुछ रूढ़ि की स्थापना से ही संभव हुआ है। यदि नायिकाभेद की प्रथा इतने जोर शोर से न चल गई होती तो बिहारी को इस प्रकार की पहेली बुझाने का साहस न होता।

अलंकारों की योजना भी इस कवि ने बड़ी निपुणता से की है। किसी-किसी दोहे में कई अलंकार उलझे पड़े है, पर उनके कारण कहीं भद्दापन नहीं आया है। 'असंगति' और 'विरोधाभास' की ये मार्मिक और प्रसिद्ध उक्तियाँ कितनी अनूठी हैं––

दृग अरुझत, टूटत कुटुम, जुरत-चतुर-चित प्रीति। परति गाँठ दुरजन हिए, दई नई यह रीति॥
तंत्रीनाद कवित्त रस, सरस राग रति रंग। अनबूड़े बूड़े, तिरे जे बूड़े सब अंग॥

दो एक जगह व्यंग्य अलंकार भी बड़े अच्छे ढंग से आए हैं। इस दोहे में रूपक व्यंग्य है––

करे चाह सों चुटकि कै, खरे उडौहैं मैन।‌‌ लाज नवाए तरफरत, करत खूँद सी नैन॥

शृंगार के संचारी भावों की व्यंजना भी ऐसी मर्मस्पर्शिनी है कि कुछ दोहे सहृदयों के मुँह से बार बार सुने जाते हैं। इस स्मरण में कैसी गंभीर तन्मयता है––

सघन कुंज, छाया सुखद, सीतल मंद समीर। मन ह्वै जात अजौं वहै, वा जमुना के तीर॥

विशुद्ध काव्य के अतिरिक्त बिहारी ने सूक्तियाँ भी बहुत सी कही हैं जिनमें बहुत सी नीति-संबंधिनी है। सूक्तियों में वर्णन-वैचित्र्य या शब्द-वैचित्र्य ही प्रधान रहता है अतः उनमें से कुछ एक की ही गणना असल काव्य में हो सकती है। केवल शब्द-वैचित्र्य के लिये बिहारी ने बहुत कम दोहे रचे है। कुछ दोहे यहाँ दिए जाते हैं––

यद्यपि सुंदर सुघर पुनि, सगुनौं दीपक-देह। तऊ प्रकास करै तितो, भरिए जितो सनेह॥
कनक कनक तें सौगुनी, मादकता अधिकाय। वह खांए बौराये नर, यह पाए बौराय॥
तोपर वारौं उरबसी, सुनि राधिके सुजान। तू मोइन के उर बसी, ह्वै उरबसी समान॥

बिहारी के बहुत से दोहे "आर्यासप्तशती" और "गाथासप्तशती" की छाया [ २५० ]लेकर बने हैं, इस बात को पंडित पद्मसिंह शर्मा ने विस्तार से दिखाया है। पर साथ ही उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि बिहारी ने गृहीत भावों को अपनी प्रतिभा के बल से किस प्रकार एक स्वतंत्र और कहीं कहीं अधिक सुंदर रूप दे दिया है।

बिहारी की भाषा चलती होने पर भी साहित्यिक है। वाक्यरचना व्यवस्थित है और शब्दों के रूपों का व्यवहार एक निश्चित प्रणाली पर है। यह बात बहुत कम कवियो में पाई जाती है। ब्रजभाषा के कवियो में शब्दों को तोड़ मरोड़कर विकृत करने की आदत बहुतों में पाई जाती हैं। 'भूषण' और 'देव' ने शब्दो का बहुत अंग भंग किया है और कहीं कहीं गढ़त शब्दों का व्यवहार किया है। बिहारी की भाषा इस दोष से भी बहुत कुछ मुक्त है। दो एक स्थल पर ही 'स्मर' के लिये 'समर', 'ककै' ऐसे कुछ विकृत रूप मिलेंगे। जो यह भी नहीं जानते कि क्रांति को 'संक्रमण' (अप० संक्रोन) भी कहते हैं, 'अच्छ' साफ के अर्थ में संस्कृत शब्द हैं, 'रोज' रुलाई के अर्थ में आगरे के आस पास बोला जाता है और कबीर, जायसी आदि द्वारा बराबर व्यवहृत हुआ हैं, 'सोनजाइ' शब्द 'स्वर्णजाती' से निकला है––जुही से कोई मतलब नहीं, संस्कृत में 'वारि' और 'वार' दोनो शब्द है और 'वार्द' का अर्थ भी बादल है, 'मिलान' पड़ाव या मुकाम के अर्थ में पुरानी कविता में भरा पड़ा है, चलती ब्रजभाषा में 'पिछानना' रूप ही आता है, 'खटकति' का रूप बहुवचन में भी यही रहेगा, यदि पचासों शब्द, उनकी समझ में न आएँ तो बेचारे बिहारी का क्या दोष?

बिहारी ने यद्यपि लक्षण-ग्रंथ के रूप में अपनी 'सतसई' नहीं लिखी है, पर 'नख-शिख', 'नयिकाभेद', 'षट्ऋतु' के अंतर्गत उनके सब शृंगारी दोहे आ जाते हैं और कई टीकाकारों ने दोहों को इस प्रकार के साहित्यिक क्रम के साथ रखी भी है। जैसा कि कहा जा चुका है, दोहो को बनाते समय बिहारी का ध्यान लक्षणों पर अवश्य था। इसीलिये हमने बिहारी को रीतिकाल के फुटकल कवियों में न रख उक्त काल के प्रतिनिधि कवियों में ही रखा है।

बिहारी की कृति का मूल्य जो बहुत अधिक आँका गया है उसे अधिकतर [ २५१ ]रचना की बारीकी या काव्यांगो के सूक्ष्म विन्यास की निपुणता की ओर ही मुख्यतः दृष्टि रखनेवाले पारखियों के पक्ष से समझना चाहिए-उनके पक्ष से समझना चाहिए जो किसी हाथी-दाँत के टुकड़े पर महीन बेल-बूटे देख घंटो 'वाह वाह' किया करते हैं। पर जो हृदय के अंतस्तल पर मार्मिक प्रभाव चाहते है, किसी भाव की स्वच्छ निर्मल धारा में कुछ देर अपना मने मग्न रखना चाहते हैं, उनका संतोष बिहारी से नहीं हो सकता। बिहारी का काव्य हृदय में किसी ऐसी लय या संगीत का संचार नहीं करता जिसकी स्वरधारा कुछ काल तक गूँजती रहे। यदि धुले हुए भावों का आभ्यंतर प्रवाह बिहारी में होता तो वे एक एक दोहे पर ही सुतोष न करते। मार्मिक प्रभाव का विचार करें तो देव और पद्माकर के कवित्त सवैयों का सा गूँजनेवाला प्रभाव बिहारी के दोहो का नहीं पड़ता।

दूसरी बात यह कि भावों का बहुत उत्कृष्ट और उदात्त स्वरूप बिहारी में नहीं मिलता। कविता उनकी शृंगारी है, पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं। पहुँचती, नीचे ही रह जाती है।

(५) मंडन––ये जैतपुर (बुंदेलखंड) के रहनेवाले थे और संवत् १७१६ में राजा मंगदसिंह के दरबार में वर्तमान थे। इनके फुटकल कवित्त सवैए बहुत सुने जाते हैं, पर कोई ग्रंथ अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। पुस्तकों की खोज में इनके पाँच ग्रंथों का पता लगा है––रस-रत्नावली, रस-विलास, जनक-पचीसी, जानकी जू को ब्याह, नैन-पचासा।

प्रथम दो ग्रंथ रसनिरूपण पर है, यह उनके नामों से ही प्रकट होता हैं। संग्रह-ग्रंथों में इनके कवित्त-सवैए बाबर मिलते हैं। "जेइ जेइ सुखद दुखद अब तेइ तेइ कवि मंडन बिछुरत जदुपत्ती" यह पद भी इनका मिलता है। इससे जान पड़ता है कि कुछ पद भी इन्होंने रचे थे। जो पद्य इनके मिलते हैं उनसे ये बड़ी सरस कल्पना के भावुक कवि जान पड़ते है। भाषा इनकी बड़ी ही स्वाभाविक, चलती और व्यंजनापूर्ण होती थी। उसमे और कवियो का सा शब्दाडंबर नही दिखाई पड़ता। यह सवैया देखिए–– [ २५२ ]

अलि हौं तौ गई जमुना जल को सो कहा कहौं बीर! बिपत्ति परी।
घहराय कै कारी घटा उनई, इतनेई में गागरि सीस धरी॥
रपट्यो पग, घाट चढ्यो न गयो, कवि मंडन ह्वै कै बिहाल गिरी।
चिर जीवहु नंद के बारो, अरी, गहि बाहँ गरीब ने ठाढ़ी करी॥

(६) मतिराम––ये रीतिकाल के मुख्य, कवियों में हैं और चिंतामणि तथा भूषण के भाई परंपरा से प्रसिद्ध है। ये तिकवाँपुर (जिला कानपुर) में संवत् १६७४ के लगभग उत्पन्न हुए थे और बहुत दिनों तक जीवित रहे। ये बूँदी के महाराज भावसिंह के यहाँ बहुत काल तक रहे और उन्हीं के आश्रय में अपना 'ललितललाम' नामक अलंकार को ग्रंथ संवत् १७१६ और १७४५ के बीच किसी समय बनाया। इनका 'छंदसार' नामक पिंगल का ग्रंथ महाराज शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनका परम मनोहर ग्रंथ 'रसराज' किसी को समर्पित नहीं हैं। इनके अतिरिक्त इनके दो ग्रंथ और है––'साहित्यसार' और 'लक्षण-शृंगार'। बिहारी सतसई के ढंग पर इन्होने एक 'मतिराम-सतसई' भी बनाई जो हिंदी-पुस्तकों की खोज में मिली है। इसके दोहे सरसता में बिहारी के दोहों के समान ही हैं।

मतिराम की रचना की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसकी सरसता अत्यंत स्वाभाविक हैं, न तो उसमें भावों की कृत्रिमता है, न भाषा की। भाषा शब्दाडंबर से सर्वथा मुक्त है––केवल अनुप्रास के चमत्कार के लिये अशक्त शब्दों की भर्ती कहीं नहीं है। जितने शब्द और वाक्य हैं वे सब भावव्यंजना में ही प्रयुक्त हैं। रीति ग्रंथवाले कवियों में इस प्रकार की स्वच्छ, चलती और स्वाभाविक भाषा कम कवियों में मिलती है, कहीं कहीं वह अनुप्रास के जाल में बेतरह जकड़ी पाई जाती हैं। सारांश यह कि मतिराम की सी रसस्निग्ध और प्रसादयूर्ण भाषा रीति का अनुसरण करनेवालों में बहुत ही कम मिलती है।

भाषा के ही समान मतिराम के न तो भाव कृत्रिम है और न उनके व्यंजक व्यापार और चेष्टाएँ। भावों को असमान पर चढ़ाने और दूर की कौड़ी जाने के फेर में ये नहीं पड़े हैं। नायिका के विरहताप को लेकर बिहारी के [ २५३ ]समान मजाक इन्होने नहीं किया है। इनके भाव-व्यंजक व्यापारों की शृंखला सीधी और सरल है, बिहारी के समान चक्करदार नहीं। वचन-वक्रता भी इन्हें बहुत पसंद न थी। जिस प्रकार शब्द-वैचित्र्य को ये वास्तविक काव्य से पृथक् वस्तु मानते थे, उसी प्रकार खयाल की झूठी बारीकी को भी। इनका सच्चा कवि-हृदय था। ये यदि समय की प्रथा के अनुसार रीति की बँधी लीकों पर चलने के लिये विवश न होते, अपनी स्वाभाविक प्रेरणा के अनुसार चलने पाते, तो और भी स्वाभाविक और सच्ची भाव-विभूति दिखाते, इसमें कोई संदेह नही। भारतीय-जीवन से छाँटकर लिए हुए इनके मर्मस्पर्शी चित्रों में जो भाव भरे हैं, वे समान रूप से सबकी अनुभूति के अंग है।

'रसराज' और 'ललितललाम', मतिराम के ये दो ग्रंथ-बहुत प्रसिद्ध है, क्योंकि रस और अलंकार की शिक्षा में इनका उपयोग बराबर होता चला आया है। वास्तव में अपने विषय के ये अनुपम ग्रंथ है। उदाहरणों की रमणीयता से अनायास रसों और अलंकारों का अभ्यास होता चलता है। 'रसराज' का तो कहना ही क्या है। 'ललितललाम' में भी अलंकारों के उदाहरण बहुत सरस और स्पष्ट है। इसी सरसता और स्पष्टता के कारण ये दोनों ग्रंथ इतने सर्वप्रिय रहे हैं। रीति-काल के प्रतिनिधि कवियों में पद्माकर को छोड़ और किसी कवि में मतिराम की सी चलती भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती। बिहारी की प्रसिद्धि का कारण बहुत कुछ उनका वाग्वैदग्ध्य है। दूसरी बात यह है कि उन्होंने केवल दोहे कहे हैं, इससे उनमें वह नादसौंदर्य नहीं आ सका है जो कवित्त सवैए की लय के द्वारा संघटित होता है।

मतिराम की कविता के कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं––

कुंदन को रँग फीको लगै, झलकै अति अंगनि चारु गोराई।
आँखिन में अलसानि, चितौन मे मंजु विलासन की सरसाई॥
को बिनु मोल बिकात नहीं मतिराम लहे मुसकानि-मिठाई।
ज्यों ज्यों निहारिए नेरे ह्वै नैननि त्यौं त्यौं खरी निकरै सी निकाई॥



क्यों इन आँखिन सों, निहसंक ह्वै मोहन को तन पानिप पीजै?
नेकु निहारे कलंक लगै यदि गाँव बसे कहु कैसे कै जीजै?

[ २५४ ]

होत रहैं मन यों मतिराम, कहूँ बन जाय बडों तप कीजै।
ह्वै बनमाल हिए लगिए अरु ह्वै मुरली अधरारस पीजै॥



केलि कै राति अघाने नहीं दिन ही में लला पुनि घात लगाई।
'प्यास लगी, कोउ पानी दै जाइयो', भीतर बैठि कै बान सुनाई॥
जेठी पठाई गई दुलही, हँसि हेरि हरैं मतिराम बुलाई।
कान्ह के बोल पे कान न दीन्ही, सुनेह की देहरि पै धरि आई॥



दो अनंद सो आँगन माँझ बिराजै असाढ़ की साँझ सुहाई।
प्यारी के बूझत और तिया को अचानक नाम लियो रसिकाई॥
आई उनै मुँह में हँसी, कोहि तिया पुनि चाप सी भौंह चढ़ाई।
आँखिन तें गिरे आँसू के बूँद, सुहास गयो उड़ि हँस की नाई॥



सूबन को मेटि दिल्ली देस दलिबे को चूम,
सुभट समूह निसि वाकी उमहति है।
कहै मतिराम ताहि रोकिबे को संगर में,
काहू के न हिम्मत हिम में उलहति है॥
सबुसाल नंद के प्रताप की लपट सब,
गरब गनीम-बरगीन को दहति हैं।
पति पातसाह की, इजति उमरावन की,
राखी रैया राव भावसिंह की रहति है॥