कायाकल्प/३८

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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३८

ठाकुर हरिसेवकसिंह का क्रियाकर्म हो जाने के बाद एक एक दिन लौंगी ने अपना कपड़ा लत्ता बाँधना शुरू किया। उसके पास रुपए-पैसे जो कुछ थे, सब गुरुसेवक को सौंपकर बोली—भैया, मैं अब किसी गाँव में जाकर रहूँगी, यहाँ मुझसे नहीं रहा जाता।

वास्तव में लौगी से अब इस घर में न रहा जाता था। घर की एक एक चीज उसे काटने दौड़ती थी। २५ वर्ष तक इस घर की स्वामिनी बनी रहने के बाद अब वह किसी की आश्रिता न बन सकती थी। सब कुछ उसी के हाथों का किया हुआ था, [ २८३ ]पर अब उसका न था। यह घर उसी ने बनवाया था। उसने घर बनवाने पर जोर न दिया होता, तो ठाकुर साहब अभी तक किसी किराये के घर पड़े होते। घर का साग सामान उसी का खरीदा हुआ था, पर अब उसका कुछ न था। सब कुछ स्वामी के साथ चला गया। वैधव्य के शोक के साथ यह भाव कि मैं किसी दूसरे की रोटियों पर पड़ी हूँ,उसके लिए असह्य था। हालाँकि गुरुसेवक पहले से अब कहीं ज्यादा उसका लिहाज करते थे, और कोई ऐसी बात न होने देते थे, जिससे उसे रंज हो। फिर भी कभी-कभी ऐसी बातें हो ही जाती थीं, जो उसकी पराधीनता को याद दिला देती थीं। कोई नौकर अब उससे अपनी तलब माँगने न आता था; रियासत के कर्मचारी अब उसकी खुशामद करने न आते थे। गुरुसेवक और उसकी स्त्री के व्यवहार में तो किसी तरह की त्रुटि न थी। लौगी का उन लोगों से जैसी आशा थी, उससे कहीं अच्छा बर्ताव उसके साथ किया जाता था, लेकिन महरियाँ अब खड़ी जिसका मुँह जोहती है, वह कोई और ही है; नौकर जिसका हुक्म सुनते दौड़कर आते हैं, वह भी और ही कोई है। देहात के असामी नजराने या लगान के रुपए अब उसके हाथ में नहीं देते, शहर की दूकानों के किरायेदार भी अब उसे किराये देने नहीं आते। गुरुसेवक ने अपने मुंह से किसी से कुछ नहीं कहा है। प्रथा ओर रुचि ने आप ही आप सारा व्यवस्था उलट-पलट कर दी है। पर ये ही वे बातें हैं, जिनसे उसके आहत हृदय को ठेस लगती है, और उसकी मधुर स्मृतियों में एक क्षण के लिए ग्लानि की छाया आ पड़ती है। इसी लिए अब वह वहाँ से जाकर किसी देहात में रहना चाहती। आखिर जब ठाकुर साहब ने उसके नाम कुछ नहीं लिखा, उसे दूध की मक्खी की भाँति निकालकर फेंक दिया, तो वह यहाँ क्यों पड़ी दूसरों का मुँह जोहे? उसे अब एक टूटे फूटे झोपड़े और एक टुकड़े रोटी के सिवा और कुछ नहीं चाहिए। इसके लिए वह अपने हाथों से मेहनत कर सकती है। जहाँ रहेगी, वहीं अपने गुजर-भर को कमा लेगी। उसने जो कुछ किया, यह उसी का तो फल है। वह अपनी झोपड़ी में पड़ी रहती, तो आज क्यों यह अनादर और अपमान होता? झोपड़ी छोड़कर महल के सुख भोगने का ही यह दण्ड है।

गुरुसेवक ने कहा—आखिर सुनें तो, कहाँ जाने का विचार कर रही हो?

लौंगी—जहाँ भगवान् ले जायँगे, वहाँ चली जाऊँगी; कोई नैहर या दूसरी ससुराल है, जिसका नाम बता दूँ?

गुरुसेवक—सोचती हो, तुम चली जाओगी तो मेरी कितनी बदनामी होगी? दुनिया यही कहेगी कि इनसे एक वेवा का पालन न हो सका। उसे घर से निकाल दिया। मेरे लिए कहीं मुँह दिखाने की भी जगह न रहेगी। तुम्हें इस घर में जो शिकायत हो वए मुझसे कहो; जिस बात की जरूरत हो, मुझसे बतला दो। अगर मेरी तरफ से उसमें जरा भी कोर-कसर देखो, तो फिर तुम्हें अख्तियार है, जो चाहे करना। यों मैं कभी न जाने दूँगा।

लौंगी—क्या बाँधकर रखोगे? [ २८४ ]

गुरुसेवक—हाँ बाँधकर रखेंगे।

अगर उम्र-भर में लौंगी को गुरुसेवक की कोई बात पसन्द आयी, तो उनका यही दुराग्रह-पूर्ण वाक्य था। लौंगी का हृदय पुलकित हो गया। इस वाक्य में उसे आत्मीयता हुई जान पड़ी। उसने जरा तेज होकर कहा—बाँधकर क्यों रखोगे? क्या तुम्हारी बेसाही हूँ?

गुरुसेवक—हाँ, बेसाही हो! मैंने नहीं बेसाहा, मेरे बाप ने तो बेसाहा है। बेसाही न होती, तो तुम तीस साल यहाँ रहतीं कैसे? कोई और आकर क्यों न रह गयी? दादाजी चाहते, तो एक दर्जन ब्याह कर सकते थे, कोड़ियों रखेलियाँ रख सकते थे। यह सब उन्होंने क्यों नहीं किया? जिस वक्त मेरी माता का स्वर्गवास हुआ, उस वक्त उनकी जवानी की उम्र थी, मगर उनका कट्टर-से-कट्टर शत्रु भी आज यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि उनके आचरण खराब थे। यह तुम्हारी ही सेवा की जंजीर थी, जिसने उन्हें बाँध रखा। नहीं तो आज हम लोगों का कहीं पता न होता। मैं सत्य कहता हूँ, अगर तुमने घर के बाहर कदम निकाला, चाहे तो दुनिया मुझे बदनाम ही करे, मैं तुम्हारे पैर तोड़कर रख दूँगा। क्या तुम अपने मन की हो कि जो चाहोगी, करोगी और जहाँ चाहोगी जाओगी, और कोई न बोलेगा? तुम्हारे नाम के साथ मेरी और मेरे पूज्य बाप की इज्जत बँधी हुई है।

लौंगी के जी में आया कि गुरुसेवक के चरणों पर सिर रखकर रोऊँ और छाती से लगाकर कहूँ—बेटा, मैंने तो तुझे गोद में खेलाया है, तुझे छोड़कर भला मैं कहा जा सकती हूँ? लेकिन उसने क्रुद्ध भाव से कहा—यह तो अच्छी दिल्लगी हुई। यह मुझे बाँधकर रखेंगे!

गुरुसेवक तो झल्लाये हुए बाहर चले गये और लौंगी अपने कमरे में जाकर खूब रोई। गुरुसेवक क्या किसी महरी से कह सकते थे—हम तुम्हें बाँधकर रखेंगे? कभी नहीं, लेकिन अपनी स्त्री से वह यह बात कह सकते हैं, क्योंकि उसके साथ उनकी इज्जत बँधी हुई है। थोड़ी देर के बाद वह उठकर एक महरी से बोली—सुनती है रे, मेरे सिर में दर्द हो रहा है। जरा आकर दबा दे।

आज कई महीने के बाद लौंगी ने सिर दबाने का हुक्म दिया था। इधर उसे किसी से कुछ कहते हुए संकोच होता था कि कहीं यह टाल न जाय। नौकरों के दिल में उसके प्रति वही श्रद्धा थी, जो पहले थी। लौंगी ने स्वयं उनसे कुछ काम लेना छोड़ दिया था। इन झगड़ों की भनक भी नौकरों के कानों में पड़ गयी थी। उन्होंने अनुमान किया था कि गुरुसेवक ने लौंगी को किसी बात पर डाँटा है, इसलिए स्वभावतः उनकी सहानुभूति लौंगी के साथ हो गयी थी। वे आपस में इस विषय पर मनमानी टिप्पणियाँ कर रहे थे। महरी उसका हुक्म सुनते ही तेल लाकर उसका सिर दबाने लगो। उसे अपने मनोभावों को प्रकट करने के लिए यह अवसर बहुत ही उपयुक्त जान पड़ा। बोली—आज छोटे बाबू किस बात पर बिगड़ रहे थे मालकिन? कमरे के [ २८५ ] बाहर सुनायी दे रहा था। तुम यहाँ से चली गयीं मालकिन, तो एक नोकर भी न रहेगा। सबों ने यह सोच लिया है कि जिस दिन मालकिन यहाँ से चली जायगी, हम सब भी भाग खड़े होंगे। अन्याय हम लोगों से नहीं देखा नाता।

लौंगी ने दीन भाव से कहा-नसीब ही खोटा है, नहीं तो क्यों किसी को झिलकियाँ सुननी पड़ती?

महरी-नही मालकिन, नसीबे को न खोटा कहो। नसीबा तो जैसा तुम्हारा है वैसा किसी का क्या होगा? ठाकुर साहब मरते दम तक तुम्हारा नाम रटा किये। तुम क्यों जाती हो, किसी का मजाल क्या है कि तुमसे कुछ कह सके? यह सारी सम्पदा तो तुम्हारी जोड़ी हुई है। इसे कौन ले सकता है? ठाकुर साहब को जो तुमसे सुख मिला, वह क्या किसी व्याहता से मिल सकता था?

सहसा मनोरमा ने कमरे में प्रवेश किया और लौगी को सिर में तेल डलवाते देखकर बोली-कैसा जी है अम्मा? सिर में दर्द है क्या?

लौगी-नहीं बेटा, जी तो अच्छा है। आओ, बैठो।

मनोरमा ने महरी से कहा-तुम जानो, मैं दबाये देती हूँ। दरवाजे पर खड़ी होकर कुछ सुनना नही, दूर चली जाना।

महरी इस समय यहाँ की बातें सुनने के लिए अपना सर्वस्व दे सकती थी, यह हुक्म सुनकर मन मे मनोरमा को कोसती हुई चली गयी।

मनोरमा सिर दबाने बैठी, तो लौंगी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-नहीं बेटा, तुम रहने दो। दर्द नहीं था, यो ही बुला लिया था। नहीं, मैं न दबवाऊँगी। यह उचित नहीं है। कोई देखे तो कहे कि बुढ़िया पगला गयी है, रानी से सिर दरबाती है।

मनोरमा ने सिर दबाते हुए कहा-रानी जहाँ हूँ, वहाँ हूँ; यहाँ तो तुम्हारी गोद की खेलायी नोरा हूँ। आज तो भैयाजी यहाँ से जाकर तुम्हारे ऊपर बहुत बिगड़ते रहे। मैं उसकी टाँग तोड़ दूंगा, गर्दन काट लूँगा। कितना पूछा-कुछ बतायो तो, बात क्या है? पर गुस्से में कुछ सुने ही न। भाई हैं तो क्या; पर उनका अन्याय मुझसे भी नहीं देखा जाता। वह समझते होगे कि इस घर का मालिक मै हूँ, दादाजी मेरे नाम सब छोड़ गये हैं। मैं जिसे चाहूँ, रखूँ; जिसे चाहूँ, निकलूँ। मगर दादाजी उनको नीयत को पहले ताड़ गये थे। मैंने अब तक तुमसे नहीं कहा अम्मांजी, कुछ तो मौका न मिला और कुछ भैया का लिहाज था; पर आज उनकी बातें सुनकर कहती हूँ कि पिताजी ने अपनी सारी जायदाद तुम्हारे नाम लिख दी है।

लोँगी पर इस सूचना का जरा भी असर नहीं हुआ। किसी प्रकार का उल्लास, उत्सुक्ता या गर्व उसने चेहरे पर न दिखायी दिया। वह उदासीन भाव से चारपाई पर पड़ी रही।

मनोरमा ने फिर कहा-मेरे पास उनको लिखायी हुई वसीयत रखी हुई है और मुनी को उन्होंने उसका साक्षी बनाया है। जब यह महाशय वसीयत देखेंगे तो आँखें खुलेंगी। [ २८६ ]लौंगी ने गम्भीर स्वर में कहा-नोरा, तुम यह वसीयतनामा ले जाकर उन्हीं को दे दो। तुम्हारे दादाजी ने व्यर्थ हो वसीयत लिखायी। मै उनकी जायदाद की भूखी न थी, उनके प्रेम की भूखी थी। और ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूँ बेटी, कि इस विषय में मेरा जैसा भाग्य बहुत कम स्त्रियों का होगा। मैं उनका प्रेम-धन पाकर ही सन्तुष्ट हूँ। इसके सिवा अब मुझे और किसो धन की इच्छा नहीं है। अगर मैं अपने सत पर हूँ, तो मुझे रोटी कपड़े का कष्ट कभी न होगा। गुरुसेवक को मैंने गोद में खिलाया है, उसे पाला-पोसा है। वह मेरे स्वामी का बेटा है। उसका हक मैं किस तरह छीन सकती हूँ? उसके सामने की थाली कैसे खीच सकती हूँ? वह कागज फाड़कर फेंक दो। यह कागज लिखकर उन्होंने अपने साथ और गुरुसेवक के साथ अन्याय किया है। गुरुसेवक अपने बाप का बेटा है, तो मुझे उसी आदर से रखेगा। वह मुझे माने या न माने, मैं उसे अपना ही समझती हूँ। तुम सिरहाने बैठी मेरा सिर दवा रही हो, क्या धन में इतना सुख कभी मिल सकता है? गुरुसेवक के मुंह से 'अम्मा' सुनकर मुझे वह खुशी होगी, जो संसार की रानी बनकर भी नहीं हो सकती, तुम उनसे इतना ही कह देना।

यह कहते-कहते लौंगी की आँखें सजल हो गयीं। मनोरमा उसको ओर प्रेम, श्रद्धा, गर्व और आश्चर्य से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो।