कायाकल्प/४९

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कायाकल्प
द्वारा प्रेमचंद

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४९

गाड़ी अन्धकार को चीरती हुई चली जाती थी। सहसा शङ्खधर 'हर्षपुर' का नाम सुनकर चौंक पड़ा। वह भूल गया, मैं कहाँ जा रहा हूँ, किस काम से जा रहा हूँ, और मेरे रुक जाने से कितना बड़ा अनर्थ हो जायगा? किसी अज्ञात शक्ति ने उसे गाडी खोलकर उतर आने पर मजबूर कर दिया। उसने स्टेशन को गौर से देखा। उसे जान पड़ा, मानो उसने इसे पहले भी देखा है। वह एक क्षण तक आत्म-विस्मृति की दशा में खड़ा रहा। फिर टहलता हुआ स्टेशन के बाहर चला गया।

टिकट बाबू ने पूछा—आपका टिकट तो आगरे का है?

शङ्खधर ने लापरवाही से कहा—कोई हरज नहीं।

वह स्टेशन से बाहर निकला, तो उस समय अन्धकार में भी वह स्थान परिचित मालूम हुआ। ऐसा जान पड़ा, मानो बहुत दिनों तक यहाँ रहा है। वह सड़कों पर हो [ ३२९ ]लिया और आबादी की ओर चला। ज्यों-ज्यों बस्ती निकट आती थी, उसके पाँव तेज होते थे। उसे एक विचित्र उत्साह हो रहा था। जिसका आशय वह स्वयं कुछ न समझ सकता था। एकाएक उसके सामने एक विशाल भवन दिखायी दिया। भवन के सामने एक छोटा-सा बाग था। वह बिजली की रोशनी से जगमगा रहा था। उस दिव्य प्रकाश में भवन की शुभ्र छटा देखकर शंखधर उछल पड़ा। उसे ज्ञात हुआ, यही उसका पुराना घर है, यहीं उसका बालापन बीता है। भवन के भीतर एक एक कमरा उसकी आँखों में फिर गया। ऐसी इच्छा हुई कि उड़कर अन्दर चला जाऊँ। बाग के द्वार पर एक चौकीदार संगीन चढ़ाये खड़ा था। शङ्खधर को अन्दर कदम रखते देखकर बोला—तुम कौन हो?

शङ्खधर ने डाँटकर कहा—चुप रहो, हम रानीजी के पास जा रहे हैं।

यह रानी कौन थी, यह क्यों उसके पास जा रहा था, और उसका रानी से कब परिचय हुआ था, यह सब शङ्खधर को कुछ याद न आता था। दरबान को उसने जो जवाब दिया था, वह भी अनायास ही उसके मुँह से निकल गया था। जैसे नशे में आदमी का अपनी चेतना पर कोई अधिकार नहीं रहता, उसकी वाणी, उसके अंग, उसकी कर्मेन्द्रियाँ उसके काबू के बाहर हो जाती हैं, वही दशा शङ्खधर की भी हो रही थी। चौकीदार उसका उत्तर सुनकर रास्ते से हट गया और शङ्खधर ने बाग में प्रवेश किया। बाग का एक एक पौदा, एक-एक क्यारी, एक-एक कुञ्ज, एक एक मूर्ति, हौज, संगमरमर का चबूतरा उसे जाना-पहचाना सा मालूम हो रहा था। वह निःशंक भाव से राज भवन में जा पहुँचा।

एक सेविका ने पूछा—तुम कौन हो?

शङ्खधर ने कहा—साधु हूँ। जाकर महारानी को सूचना दे दे।

सेविका—महारानीजी तो इस समय पूजा पर हैं। उनके पास जाने का हुक्म नहीं है।

शङ्खधर—क्या बहुत देर तक पूजा करती हैं?

सेविका—हाँ, कोई तीन बजे रात को पूजा से उठेंगी। उसी वक्त नाममात्र को पारण करेंगी और घण्टे-भर आराम करके स्नान करने चली जायँगी। फिर तीन बजे रात-तक एक क्षण के लिए भी आराम न करेंगी। यही उनका जीवन है।

शङ्खधर—बड़ी तपस्या कर रही हैं!

सेविका—अब और कैसी तपस्या होगी, महाराज? न कोई शौक है, न शृंगार है, न किसी से हँसना, न बोलना। आदमियों की सूरत से कोसों भागती हैं। रात-दिन जप-तप के सिवा और कोई काम ही नहीं। जब से महाराज का स्वर्गवास हुआ है, तभी से तपस्विनी बन गयी हैं। आप कहाँ से आये हैं और उनसे क्या काम है?

शङ्खधर—साधु-सन्तों को किसी से क्या काम? महारानी की साधु-सेवा की चर्चा सुनकर चला आया। [ ३३० ]

सेविका—आपकी आवाज तो मालूम होता है, कहीं सुनी है; लेकिन आपको देखा नहीं।

यह कहते-कहते वह सहसा काँप उठी। शङ्खधर की तेजमयी मूर्ति में उसे उस आकृति का प्रतिबिम्ब अमानुषीय प्रकाश से दीप्त दिखायी दिया, जिसे उसने २० वर्ष पूर्व देखा था। वह सादृश्य प्रतिक्षण प्रत्यक्ष होता जाता था, यहाँ तक कि वह भयभीत होकर वहाँ से भागी और रानी कमला के कमरे में जाकर सहमी हुई खड़ी हो गयी।

रानी कमलावती ने आग्नेय नेत्रों से देखकर पूछा—तू यहाँ क्या करने आयी? इस समय तेरा यहाँ क्या काम है?

सेविका—महारानीजी, क्षमा कीजिए। प्राण-दान मिले तो कहूँ। आँगन में एक तेजस्वी पुरुष खड़ा आपको पूछ रहा है। मैं क्या कहूँ महारानीजी, उसका कण्ठ-स्वर और आकृति हमारे महाराजा से इतनी मिलती है कि मालूम होता है, वही खड़े हैं। न जाने कैसी दैवी लीला है। अगर मैंने कभी किसी का अहित चेता हो तो मैं सौ जन्म नरक भोंगूँ।

रानी कमला पूजा पर से उठ खड़ी हुई और गम्भीर भाव से बोलीं—डर मत, डर मत, उन्होंने तुझसे क्या कहा?

सेविका—सरकार मेरा तो कलेजा काँप रहा है। उन्होंने सरकार का नाम लेकर कहा कि उन्हें द्वारे आने की सूचना दे दे।

रानी—उनकी क्या अवस्था है?

सेविका—सरकार, अभी तो मसे भींग रही हैं।

रानी कमला देर तक विचार में मग्न खड़ी रही। क्या ऐसा हो सकता है? क्या इस जीवन में अपने प्राणाधार के दर्शन फिर हो सकते हैं? बीस ही वर्ष तो उन्हें शरीर त्याग किये भी हुए। क्या ऐसा कभी हो सकता है?

उसकी पूर्व स्मृतियाँ जाग्रत हो गयीं। एक पर्वत की गुफा में महेन्द्र के साथ रहना याद आया। उस समय भी वह ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे थे। उनके कितने ही अलौकिक कृत्य याद आ गये, जिनका मर्म वह अब तक न समझ सकी थी। फिर वायुयान पर उनके साथ बैठकर उड़ने की याद आयी। आह! वह गीत याद आया, जो उस समय उसने गाया था। उस समय प्राणनाथ कितने प्रेमविह्वल हो रहे थे। उनकी प्रेम प्रदीप्त छवि उसके सामने आ गयी। हाय! उन नेत्रों में कितनी तृष्णा थी, कितनी अतृप्त लालसा! उस अपार सुखमय अशांति, उस मधुर व्यथा-पूर्ण उल्लास को याद करके वह पुलकित हो उठी। आह! वह भीषण अन्त! उसे ऐसा जान पड़ा, वह खड़ी न रह सकेगी।

सेविका ने कातर स्वर में पूछा—सरकार, क्या आज्ञा है? रानी ने चौंककर कहा—चल, देखूँ तो कौन है? वह हृदय को सँभालती हुई आँगन में आयी। वहीं बिजली के उज्ज्वल प्रकाश में [ ३३१ ]उसे शंखधर की दिव्य मूर्ति ब्रह्मचर्य के तेज से चमकती हुई खड़ी दिखायी दी, मानो उसका सौभाग्य-सूर्य उदित हो गया हो। क्या अब भी कोई सन्देह हो सकता था? लेकिन संस्कारों को मिटाना भी तो आसान नहीं। संसार में कितना कपट है, क्या इसका उसे काफी अनुभव न था? यद्यपि उसका हृदय उन चरणों से दौड़कर लिपट जाने के लिए अधीर हो रहा था, फिर भी मन को रोककर उसने दूर ही से पूछा—महाराज, आप कौन हैं, और मुझे क्यों याद किया है?

शंखधर ने रानी के समीप जाकर कहा—क्या मुझे इतनी जल्द भूल गयी, कमला? क्या इस रूपान्तर ही से तुम्हें यह भ्रम हो रहा है? मैं वही हूँ, जिसने न जाने कितने दिन हुए, तुम्हारे हृदय में प्रेम के रूप में जन्म लिया था, और तुम्हारे प्रियतम के रूप में तुम्हारे सत्, व्रत और सेवा से अमर होकर आज तक उसी अपार आनन्द की खोज में भटकता फिरता हूँ। क्या कुछ और परिचय दूँ? वह पर्वत की गुफा तुम्हें याद है? वह वायुयान पर बैठकर आकाश में भ्रमण करना याद है? आह! तुम्हारे उस स्वर्गीय संगीत की ध्वनि अभी तक कानों में गूँज रही है। प्रिये, कह नहीं सकता, कितनी बार तुम्हारे हृदय मन्दिर के द्वार पर भिक्षुक बनकर आया; लेकिन दो बार आना याद है। मैंने उसे खोलकर अन्दर जाना चाहा; पर दोनों ही बार असफल रहा। वही अतृप्त आकांक्षा मुझे फिर खींच लायी है, और

रानी कमला ने उन्हें अपना वाक्य न पूरा करने दिया। वह दोड़कर उनके चरणों पर गिर पड़ी और उन्हें अपने आँसुओं से पखारने लगी। यह सौभाग्य किसको प्राप्त हुआ है। जिस पवित्र मूर्ति की वह बीस वर्ष से उपासना कर रही थी, वही उसके सम्मुख खड़ी थी। वह अपना सर्वस्व त्याग देगी; इस ऐश्वर्य को तिलांजलि दे देगी और अपने प्रियतम के साथ पर्वतों में रहेगी। वह सब कुछ झेलकर अपने स्वामी के चरण से लगी रहेगी। इसके सिवा अब उसे कोई आकांक्षा, कोई इच्छा नहीं है।

लेकिन एक ही क्षण में उसे अपनी शारीरिक अवस्था की याद आ गयी। उसके उन्मत्त हृदय को ठोकर-सी लगी। यौवन-काल के रूप-लावण्य के लिए उसका मन लालायित हो उठा; वे काले काले लम्बे केश, वह पुष्प के समान विकसित कपोल, वे मदभरी मतवाली आँखें, वह कोमलता, वह माधुर्य अब कहाँ? क्या इस दशा में वह अपने स्वामी की प्राणेश्वरी बन सकेगी?

सहसा शंखधर बोले—कमला, कभी तुम्हें मेरी याद आती थी?

रानी ने उनका हाथ पकड़कर कहा—आओ, आज २० वर्ष से तुम्हारी उपासना कर रही हूँ। आह! आप उस समय आये हैं, जब मेरे पास प्रेम नहीं, केवल श्रद्धा और भक्ति है। आइए, मेरे हृदय-मन्दिर में विराजिए।

शंखधर—ऐसा क्यों कहती हो, कमला?

कमला ने सजल-नेत्रों से शङ्खधर की ओर देखा, पर मुँह से कुछ न बोली। शङ्खधर ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा—प्रिये, मेरी दृष्टि में तुम वही हो, जो आज से [ ३३२ ]बीस वर्ष पहले थीं। नहीं, तुम्हारा आत्मस्वरूप उससे कहीं सुन्दर, कहीं मनोहर हो गया है, लेकिन तुम्हें सन्तुष्ट करने के लिए मैं तुम्हारी कायाकल्प कर दूँगा। विज्ञान में इतनी विभूति है कि वह काल के चिह्नों को भी मिटा दे।

कमला ने कातर स्वर में कहा—प्राणनाथ, क्या यह सम्भव है?

शङ्खधर—हाँ प्रिये, प्रकृति जो कुछ कर सकती है, वह सब विज्ञान के लिए सम्भव है। यह ब्रह्माण्ड एक विराट प्रयोगशाला के सिवा और क्या है?

कमला के मनोल्लास का अनुमान कौन कर सकता है? आज बीस वर्ष के बाद उसके ओठों पर मधुर हास्य क्रीड़ा करता हुआ दिखायी दिया। दान, व्रत और तप के प्रभाव का उसे आज अनुभव हुआ। इसके साथ ही उसे अपने सौभाग्य पर भी गर्व हो उठा। यह मेरी तपस्या का फल है। मैं अपनी तपस्या से प्राणनाथ को देवलोक से खींच लायी हूँ! दूसरा कौन इतना तप कर सकता है? कौन इन्द्रिय-सुखों को त्याग सकता है?

यह भाव मन में आया ही था कि कमला चौंक पड़ी। हाय! यह क्या हुआ? उसे ऐसा मालूम हुआ कि उसकी आँखों की ज्योति क्षीण हो गयी है। शङ्खधर का तेजमय स्वरूप उसे मिटा-मिटा-सा दिखायी दिया। और सभी वस्तुएँ साफ नजर न आती थीं; केवल शंखधर दूर-दूर होते जा रहे थे।

कमला ने घबहाकर कहा—प्राणनाथ, क्या आप मुझे छोड़कर चले जा रहे हैं! हाय! इतनी जल्द?

शंखधर ने गम्भीर स्वर में कहा—नहीं प्रिये, प्रेम का बन्धन इतना निर्बल नहीं होता।

कमला—तो आप मुझे जाते हुए क्यों दीखते हैं?

शंखधर—इसका कारण अपने मन में देखो।

प्रातःकाल शंखधर ने कहा—प्रिये, मेरी प्रयोगशाला की क्या दशा है?

कमला—चलिए, आपको दिखाऊँ।

शंखधर—उस कठिन परीक्षा के लिए तैयार हो?

कमला—आपके रहते मुझे क्या भय है?

लेकिन प्रयोगशाला में पहुँचकर सहसा कमला का दिल बैठ गया। जिस सुख की लालसा उसे माया के अन्धकार में लिये जाती है, क्या वह सुख स्थायी होगा? पहले ही की भाँति क्या फिर दुर्भाग्य की एक कुटिल क्रीड़ा उसे इस सुख से वंचित न कर देगी? उसे ऐसा आभास हुआ कि अनन्त-काल से वह सुख-लालसा के इसी चक्र में पड़ी हुई यातनाएँ झेल रही है। हाय रे ईश्वर! तूने ऐसा देव तुल्य पुरुष देकर भी मेरी सुख-लालसा को तृप्त न होने दिया।

इतने में शंखधर ने कहा—प्रिये, तुम इस शिला पर लेट जाओ और आँखें बन्द कर लो। [ ३३३ ]कमला ने शिला पर बैठकर कातर स्वर में पूछा—प्राणनाथ, तब मुझे ये बातें याद रहेंगी?

शंखधर ने मुस्कराकर कहा—सब याद रहेंगी प्रिये, इससे निश्चिन्त रहो।

कमला—मुझे यह राज-पाट त्याग करना पड़ेगा?

शंखधर ने देखा, अभी तक कमला मोह में पड़ी हुई है। अनन्त सुख की आशा भी उसके मोह बन्धन को नहीं तोड़ सकी। दुखी होकर बोले—हाँ, कमला, तुम इससे बड़े राज्य की स्वामिनी बन जाओगी। राज्य सुख में बाधक नहीं होता, यदि विलास की ओर न ले जाय।

पर कमला ने ये शब्द न सुने। शिला में प्रवाहित विद्युत-शक्ति ने उसे अचेत कर दिया था। केवल उसकी आँखें खुली थीं। उसमें अब भी तृष्णा चमक रही थी।