चन्द्रकान्ता सन्तति 5/18.2

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चंद्रकांता संतति भाग 5  (1896) 
द्वारा देवकीनन्दन खत्री

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संध्या होना ही चाहती है। पटने की बहुत बड़ी सराय के दरवाजे पर मुसाफिरों की भीड़ हो रही है। कई भटियारे भी मौजूद हैं जो तरह-तरह के आराम की लालच दे अपनी-अपनी तरफ मुसाफिरों को ले जाने का उद्योग कर रहे हैं, और मुसाफिर लोग भी अपनी-अपनी इच्छानुसार उनके साथ जाकर डेरा डाल रहे हैं। मुसाफिरों को भटियारी के सुपुर्द करके भटियारे पुनः सराय के फाटक पर लौट आते और नये मुसाफिरों को अपनी तरफ ले जाने का उद्योग करते हैं।

यह सराय बहुत बड़ी और इसका फाटक मजबूत तथा बड़ा था। फाटक के दोनों तरफ (मगर दरवाजे के अन्दर) बारह सिपाही और एक जमादार का डेरा था जो इस सराय में रहने वाले मुसाफिरों की हिफाजत के लिए राजा की तरफ से मुकर्रर थे, उनकी तनखाह सराय के भटियारों से वसूल की जाती थी। ये ही सिपाही बारी-बारी से घूमकर सराय के अन्दर पहरा दिया करते थे और जब मुसाफिरों को किसी तरह की तकलीफ होती तो सीधे राजदीवान के पास जाकर रपट किया करते थे।

थोड़ी देर बाद जब सब मुसाफिरों के टिकने का बन्दोबस्त हो गया और सराय के फाटक पर कुछ सन्नाटा हुआ तो उन सिपाहियों का जमादार अपनी जगह से उठकर सराय के अन्दर इसलिए घूमने लगा कि देखें सब मुसाफिरों का ठीक-ठीक बन्दोबस्त हो गया या नहीं। वह जमादार केवल घूमता ही न था, बल्कि भटियारों से भी तरह-तरह के सवाल करके मुसाफिरों का हाल दरियाफ्त करता जाता था।

जमादार घूमता हुआ जब उत्तर की तरफ वाले उस कमरे के पास पहुँचा जो [ ६८ ]इस सराय में सबसे अच्छा, ऊँचा, दो-मंजिला और अमीरों के रहने लायक बना और सजा हुआ था तो कुछ देर के लिए अटक गया और उस कमरे तथा उसमें रहने वालों की तरफ ध्यान देकर देखने लगा, क्योंकि उसमें एक जौहरी का डेरा पड़ा हुआ था जो बहुत मालदार मालूम होता था। वह जवहरी भी जमादार को देखकर कमर के बाहर निकल आया और इशारे से जमादार को अपने पास बुलाया।

पास पहुँचने पर जमादार ने उस जौहरी को एक रोआबदार और अमीर आदमी पाकर सलाम किया और सलाम का जवाब पाने के बाद बोला, "कहिए, क्या है?"

जौहरी––मालूम होता है किस इस सराय की हिफाजत महाराज की तरफ से तुम्हारे सुपुर्द है और वे फाटक पर रहने वाले सिपाही सब तुम्हारे ही अधीन हैं।

जमादार––जी हाँ।

जौहरी––तो पहरे का इन्तजाम क्या है? किस ढंग से पहरा दिया जाता है?

जमादार––मेरे पास बारह सिपाही हैं जिनके तीन हिस्से कर देता हूँ, चार-चार आदमी एक-एक दफे घूमकर पहरा देते हैं।

जौहरी––एक साथ रहकर?

जमादार––जी नहीं, चारों अलग-अलग रहते हैं, घूमते समय थोड़ी-थोड़ी देर में मुलाकात हुआ करती है।

जौहरी––मगर ऐसा तो···(कुछ रुककर) यों खड़े-खड़े बातें करना मुनासिब न होगा, आओ, कमरे में जरा बैठ जाओ, हमें तुमसे कई जरूरी बातें करनी हैं।

इतना कहकर जौहरी कमरे के अन्दर चला गया और उसके पीछे-पीछे जमादार भी यह कहता हुआ चला गया कि "कुछ देर तक आपके पास ठहरने में हर्ज नहीं है मगर ज्यादा देर तक···"

वह कमरा कुछ तो पहले ही से दुरुस्त था और कुछ जोहरी साहब ने अपने सामान से उसे रौनक दे दी थी। फर्श के एक तरफ बड़ा-सा ऊनी गलीचा बिछा हुआ था, उसी पर जाकर जौहरी साहब बैठ गये और जमादार भी उन्हीं के पास, मगर गलीचे के नीचे बैठ गया। बैठने के साथ ही जौहरी साहब ने जेब में से पाँच अशफियाँ निकाली और जमादार की तरफ बढ़ा के कहा, "अपने फायदे के लिए मैं तुम्हारा समय नष्ट कर रहा हूँ और करूँगा तब उसका हर्जाना पहले ही दे देना उचित है।"

जमादार––नहीं-नहीं, इसकी क्या जरूरत है। इतने समय में मेरा कोई हर्ज न होगा!

जौहरी––समय का व्यर्थ नष्ट होना ही हर्ज कहलाता है, मैं जिस तरह अपने समय की प्रतिष्ठा करता हूँ, उसी तरह दूसरे के समय की भी।

जमादार––हाँ, ठीक है। मगर···मैं तो···आपका···

जौहरी––नहीं-नहीं, इसे अवश्य लेना होगा।

यों तो जमादार ऊपर के मन से चाहे जो कहे, मगर अशर्फी देखकर उसके मुँह में पानी भर आया था। उसने सोचा कि यह जौहरी एक मामूली बात के लिए जब पाँच

च॰ स॰-5-4

[ ६९ ]अशर्फियाँ देता है तो अगर मैं इसका काम करूँगा तो बेशक बहुत बड़ी रकम मुझे देगा। ऐसा देने वाला तो आज तक मैंने देखा ही नहीं। अब इस रकम को हाथ से न जाने देना चाहिए।

जमादार––(अशर्फियाँ लेकर) कहिये, क्या आज्ञा होती है?

जौहरी––हाँ, तो चार आदमी का पहरा बँधा है?

जमादार––जी हाँ।

जौहरी––तो तुम्हें तो न घूमना पड़ता होगा?

जमादार––जी नहीं, मैं अपने ठिकाने उसी फाटक पर बैठा रहता हूँ और बाकी के आठ आदमी भी मेरे पास ही सोये रहते हैं। जब पहरा बदलने का समय होता है तो घण्टे की आवाज से होशियार करके दूसरे चार को पहरे पर भेज देता हूँ और उन चारों को बुलाकर आराम करने की आज्ञा देता हूँ। आप अपना मतलब तो कहिए!

जौहरी––मेरा मतलब केवल इतना ही है कि मैं आज चार दिन का जागा हुआ हूँ, सफर में आराम करने की नौबत नहीं आई, मगर आज सब दिन की कसर मिटाना अर्थात् अच्छी तरह सोना चाहता हूँ।

जमादार––तो आप आराम से सोइये, कोई हर्ज नहीं।

जौहरी––मैं क्योंकर बेफिक्री के साथ सो सकता हूँ! मेरे साथ बहुत बड़ी रकम है। (कमरे में रखे हुए सन्दूकों की तरफ इशारा करके) इन सभी में जवाहरात की चीजें भरी हुई हैं। जब तक मेरे मन के माफिक इनकी हिफाजत का बन्दोबस्त न हो जायगा, तब तक मुझे नींद आ ही नहीं सकती।

जमादार––आप इन्हें बहुत बड़ी हिफाजत के अन्दर समझिए, क्योंकि इस सराय के अन्दर से चोरी करके कोई बाहर नहीं निकल सकता, इसलिए कि फाटक बन्द करके ताली मैं अपने पास रखता हूँ और सिवाय फाटक के दूसरे किसी तरफ से किसी के निकल जाने का रास्ता ही नहीं है।

जौहरी––ठीक है, मगर आखिर बहुत सवेरे फाटक खुलता ही होगा। कौन ठिकाना मैं कई दिनों का जागा हुआ गहरी नींद में सो जाऊँ और मेरे आदमी भी मुझे बेफिक्र देख खुर्राटे लेने लगें और दिन चढ़े तक किसी की आँख ही न खुले, तो ऐसी हालत में कोई चोरी करेगा भी तो प्रातः समय में फाटक खुलने पर उसका निकल जाना कोई बड़ी बात न होगी।

जमादार––ठीक है, मगर मैं वादा करता हूँ कि सुबह मैं आपसे पूछकर फाटक खोलूँगा।

जौहरी हो सकता है, परन्तु कदाचित चोरी हो ही जाय और चोर पकड़ा भी जाय तो मुझे राजा या किसी राजकर्मचारी के पास सबूत देने के लिए जाना पड़ेगा और ऐसा होने से मेरा बहुत बड़ा हर्ज होगा, ताज्जुब नहीं कि राजा साहब या राजकर्मचारी मुझे ठहरने की आज्ञा दें, मगर मैं एक दिन भी नहीं रुक सकता, इत्यादि बहुत-सी बातों को सोचकर मैं चाहता हूँ कि चोरी होने का शक ही न रहे और मैं आराम के साथ टाँगें फैलाकर सोऊँ और यह बात यदि तुम चाहो तो सहज ही में हो सकती है, इसके बदले [ ७० ]में मैं तुम्हें अच्छी तरह खुश कर दूँगा।

जमादार––कोई चिन्ता नहीं मैं अपने सिपाहियों को हुक्म दे दूँगा कि चार में से एक आदमी सिर्फ आपके दरवाजे पर और तीन आदमी तमाम सराय में घूम-घूमकर पहरा दिया करें।

जौहरी––बस-बस, इतने ही से मैं बेफिक्र हो जाऊँगा। अपने सिपाहियों को यह भी ताकीद कर देना कि मेरे सिपाहियों को सोने न दें! यद्यपि मैं भी अपने आदमियों को जागने के लिए सख्त ताकीद कर दूँगा, मगर वे कई दिन के जागे हुए हैं, नींद आ जाय तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है। हाँ, एक तरकीब मुझे और मालूम है जो इससे भी सहज में हो सकती है। अर्थात् तुम स्वयं अकेले भी यदि यहाँ अपने सोने का बन्दोबस्त रखोगे तो तमाम रात यहाँ अमन-चैन बना रहेगा, पहरा बदलने के समय···

जमादार––मैं आपका मतलब समझ गया, मगर नहीं, ऐसा करने से मेरी बदनामी हो जायगी, मुझे हरदम फाटक पर मौजूद ही रहना चाहिए, क्योंकि रात भर में पचासों दफे लोग फाटक पर मेरे पास तरह-तरह की फरियाद करने आया करते हैं। खैर, आप इस बारे में चिन्ता न कीजिए, मैं आपके माल-असबाब की निगहबानी का पूरा इन्तजाम कर दूँगा, अगर आपका कुछ नुकसान हो तो मेरा जिम्मा।

कुछ और बातचीत करने के बाद जमादार अपने स्थान पर चला गया और थोड़ी देर बाद प्रतिज्ञानुसार उसने पहरे का बन्दोबस्त भी कर दिया।

पाठक, यह सौदागर महाराज हमारे उपन्यास का कोई नवीन पात्र नहीं है, बल्कि बहुत प्राचीन पात्र तारासिंह है जो नानक की चालचलन का पता लगाके चुनारगढ़ लौट जा रहा है। इसे इस बात का विश्वास हो गया कि नानक मेरा पीछा करेगा और ऐयारी के कायदे को छप्पर पर रख के जहाँ तक हो सकेगा, मुझे नुकसान पहुँचाने की कोशिश करेगा, इसलिए वह इस ढंग से सफर कर रहा है। हकीकत में तारासिंह का खयाल बहुत ठीक था। नानक, तारासिंह को नुकसान पहुँचाने, बल्कि जान से मार डालने की कसम खा चुका था। केवल इतना ही नहीं, बल्कि वह अपने बाप का तथा राजा वीरेन्द्रसिंह का भी विपक्षी बन गया था, क्योंकि अब उसे किसी तरफ से किसी तरह की उम्मीद न रही थी। अब वह (नानक) भी अपने शागिर्दो को साथ लिए हुए तारासिंह के पीछे-पीछे सफर कर रहा है और आज उसका भी डेरा इसी सराय में पड़ा है क्योंकि पहले ही से पता लगाए रहने के कारण वह तारासिंह की पूरी खबर रखता है और जानता है कि तारासिंह सौदागर बनकर इसी सराय में उतरा हुआ है। नानक यद्यपि तारासिंह को फँसाने का उद्योग कर रहा है, मगर उसे इस बात की खबर कुछ भी नहीं है कि तारासिंह भी मेरी तरफ से गाफिल नहीं है और उसे मेरा रत्ती-रत्ती हाल मालूम है। अब देखना चाहिए, कि किसकी चालाकी कहाँ तक चलती है।

रात आधी से ज्यादा जा चुकी है। सराय के अन्दर बिल्कुल सन्नाटा तो नहीं है, मगर पहरा देने वालों के अतिरिक्त बहुत कम आदमी ऐसे हैं जिन्हें अपनी कोठरी के बाहर की खबर हो। सराय का बड़ा फाटक बन्द है, पहरे के सिपाहियों में से एक तो तारासिंह (सौदागर) के दरवाजे पर टहल रहा है और बाकी के तीन घूम-घूमकर इस [ ७१ ]बहुत बड़ी सराय के अन्दर पहरा दे रहे हैं।

तारासिंह के साथ दो आदमी तो इसके शागिर्द ही हैं और दो नौकर ऐसे भी हैं जिन्हें तारासिंह ने रास्ते ही में तनख्वाह मुकर्रर करके रख लिया था, मगर ये दोनों नौकर तारासिंह के सच्चे हाल को कुछ भी नहीं जानते, इन्हें केवल इतना ही मालूम है कि तारासिंह एक अमीर सौदागर है। इस समय ये दोनों नौकर कमरे के बाहर दालान में पड़े खुर्राटे ले रहे हैं और तारासिंह तथा उसके शागिर्द कमरे के अन्दर बैठे आपस में कुछ बातचीत कर रहे हैं। कमरे का दरवाजा भिड़काया हुआ है।

तारासिंह का एक शागिर्द कमरे के बाहर निकला और उसने चारों तरफ निगाह दौड़ाने के बाद पहरे वाले सिपाही से कहा, "तुम्हें सौदागर साहब बुला रहे हैं। जाओ सुन आओ, तब तक तुम्हारे बदले मैं पहरा देता हूँ। अन्दर जाकर दरवाजा भिड़का देना, खुला मत रखना।"

हुक्म पाते ही लालची सिपाही, जिसे विश्वास था कि हमारे जमादार को कुछ मिल चुका है और मुझे भी अवश्य मिलेगा, कमरे के अन्दर घुस गया और बहुत देर तक तारासिंह का शागिर्द इधर-उधर टहलता रहा। इसी बीच में उसने देखा कि एक आदमी कई दफे इस तरफ आया, मगर किसी को टहलता देखकर लौट गया।

बहुत देर के बाद कमरे के अन्दर से दो आदमी बाहर निकले, एक तो तारासिंह का दूसरा शागिर्द और दूसरा स्वयं सौदागर-भेषधारी तारासिंह। तारासिंह के हाथ में सिपाही का ओढ़ना मौजूद था जिसे अपने शागिर्द को, जो पहरा दे रहा था, देखकर उसने कहा, "इसे ओढ़कर तुम एक किनारे सो जाओ, अगर कोई तुम्हारे पास आकर बेहोशी की दवा भी सुँघावे तो बेखटके सूँघ लेना और मुझको अपने से दूर न समझना।"

तारासिंह के शागिर्द ने ओढ़ना ले लिया और कहा––"जब से मैं टहल रहा हूँ तब से दो-तीन दफे दुश्मन आया, मगर मुझे होशियार देखकर लौट गया।"

तारासिंह––हाँ, काम में कुछ देर जरूर हो गई है। मैं उस सिपाही को बेहोश करके अपनी जगह सुला आया हूँ और चिराग गुल कर आया हूँ। (हाथ से इशारा करके) अब तुम इस खम्भे के पास लेट जाओ (दूसरे शागिर्द से) और तुम उस दरवाजे के पास जा लेटो। मैं भी किसी ठिकाने छिपकर तमाशा देखूंगा।" तारासिंह की आज्ञानुसार उसके दोनों शागिर्द बताए हुए ठिकाने पर जाकर लेट गये और तारासिंह अपने दरवाजे से कुछ दूर एक मुसाफिर की कोठरी के आगे जाकर लेट रहा, मगर इस ढंग से कि अपनी तरफ की सब कार्रवाई अच्छी तरह देख सके।

आधे घण्टे के बाद तारासिंह ने देखा कि दो आदमी उसके दरवाजे पर आकर खड़े हो गए हैं जिनकी सूरत अँधेरे के सबब दिखाई नहीं देती और यह भी नहीं जान पड़ता कि वे दोनों अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए हैं या नहीं। कुछ अटककर उन दोनों आदमियों ने तारासिंह के आदमियों को देखा-भाला, इसके बाद एक आदमी कमरे का दरवाजा खोलकर अन्दर घुस गया और आधी घड़ी के बाद जब वह कमरे के बाहर निकला तो उसकी पीठ पर एक बड़ी-सी गठरी भी दिखाई पड़ी। गठरी पीठ पर लादे हुए अपने साथी को लेकर वह आदमी सराय के दूसरे भाग की तरफ चला गया। जब [ ७२ ]वह दूर निकल गया तो तारासिंह अपने दरवाजे पर आया और शागिर्दो को चैतन्य पाने पर समझ गया कि दुश्मन ने उसके आदमी को बेहोशी की दवा नहीं सुँघाई थी। तारासिंह के दोनों शागिर्द उठे, मगर तारासिंह उन्हें उसी तरह लेटे रहने की आज्ञा देकर अपने कमरे के अन्दर चला गया और भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया। रोशनी करने के बाद तारासिंह ने देखा कि दुश्मन ने उसकी कोई चीज नहीं चुराई है, वह केवल उस सिपाही को उठाकर ले गया है जिसे तारासिंह अपनी सूरत का सौदागर बनाकर अपनी जगह लिटा आया था। तारासिंह अपनी कार्रवाई पर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने कमरे के बाहर निकलकर अपने शागिर्दो को उठाया और कहा, 'हमारा मतलब सिद्ध हो गया, अब इसमें कोई सन्देह नहीं कि कम्बख्त नानक अपनी मुराद पूरी हो गई समझ के इसी समय सराय का फाटक खुलवाकर निकल जायगा और मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ, अस्तु अब उचित है कि तुम दोनों में से एक आदमी तो यहाँ पहरा दे और एक आदमी सराय के फाटक की तरफ जाय और छिपकर मालूम करे कि नानक कब सराय के बाहर निकलता है। जिस समय वह सराय के बाहर हो उसी समय मुझे इत्तिला मिले।"

इतना कहकर तारासिंह कमरे के अन्दर चला गया और भीतर से दरवाजा बन्द कर लेने के बाद कमरे की छत पर चढ़ गया, इसलिए कि वह कमरे के ऊपर से अपने मतलब की बात बहुत-कुछ देख सकता था।

इस समय नानक की खुशी का कोई ठिकाना न था। वह समझे हुए था कि हमने तारासिंह को गिरफ्तार कर लिया, अस्तु जहाँ तक जल्द हो सके सराय के बाहर निकल जाना चाहिए। इसी खयाल से उसने अपना डेरा कूच कर दिया और सराय के फाटक पर आकर जमादार को बहुत-कुछ कह-सुनकर याद दिला के दरवाजा खुलवाया और बाहर हो गया।

तारासिंह को जब मालूम हुआ कि नानक सराय के बाहर निकल गया तब उसने यहाँ चोरी हो जाने की खबर मशहूर करने का बन्दोबस्त किया। उसके पास जो सन्दुक थे, जिनमें कीमती माल होने का लोगों या जमादार को गुमान था, उनका ताला तोड़कर खोल दिया क्योंकि वास्तव में सन्दूक विल्कुल खाली केवल दिखाने के लिए थे। इसके बाद अपने नौकरों को होशियार किया और खूब रोशनी करके 'चोर'-'चोर' का हल्ला मचाया और जाहिर किया कि हमारी लाखों रुपये की चीज (जवाहिरात) चोरी हो गई।

चोरी की खबर सुन बेचारा जमादार दौड़ा हुआ तारासिंह के पास आया जिसे देखते ही तारासिंह ने रोनी सूरत बनाकर कहा, "देखो जमादार, मैं पहले ही कहता था कि मेरे असवाब की खूब हिजाजत होनी चाहिए! आखिर मेरे यहाँ चोरी हो ही गयी! मालूम होता है कि तुम्हारे सिपाही ने मिल कर चोरी करवा दी क्योंकि तुम्हारा सिपाही दिखायी नहीं देता। कहो, अब हम अपने लाखों रुपये के माल का दावा किस पर करें?"

तारासिंह की बात सुनते ही जमादार के तो होश उड़ गए। उसने टूटे हुए सन्दूकों को भी अपनी आँखों से देख लिया और खोज करने पर उस सिपाही को भी न पाया जिसका इस समय पहरे पर मौजूद रहना वाजिब था। यद्यपि जमादार ने उसी समय सिपाहियों को फाटक पर होशियार रहने का हुक्म दे दिया मगर इस बात का उसे बहुत [ ७३ ]रंज हुआ कि उसने थोड़ी ही देर पहले एक आदमी को डेरा उठाकर सराय के बाहर चले जाने दिया था। उसने तुरन्त ही कई सिपाहियों को उसकी गिरफ्तारी के लिए रवाना किया और तारासिंह से कहा, "मैं इसी समय इस मामले की इत्तिला करने राज-दीवान के पास जाता हूँ।"

तारासिंह––तुम जहाँ चाहो वहाँ जाओ मगर हमारा तो नुकसान हो ही गया। अस्तु, हम भी अपने मालिक के पास इस बात की इत्तिला करने जाते हैं।

जमादार––(ताज्जुब से) तो क्या आप स्वयं मालिक नहीं हैं?

तारासिंह––नहीं, हम मालिक नहीं हैं, बल्कि मालिक के गुमाश्ते हैं। हमें इस बात का बहुत रंज है कि तुमने हमसे पूछे बिना सराय का फाटक खोल दिया और चोर को सराय के बाहर निकल जाने की इजाजत दे दी, यद्यपि तुम मुझसे कह चुके थे कि आपसे पूछे बिना सराय का फाटक न खोलेंगे और इसी हिफाजत के लिए हमने अपनी जेब की अशफियाँ तुम्हारी जेब में डाल दी थीं, मगर अफसोस, मुझे बात की बिल्कुल खबर न थी कि तुम हद से ज्यादा लालची हो, हमारा माल चोरी करवा दोगे और चोर से गहरी रकम रिश्वत लेकर उसे फाटक के बाहर निकल जाने की आज्ञा दे दोगे, और मैं यह भी नहीं जानता था कि इस सराय की हिफाजत करन वाले इस किस्म का रोजगार करते हैं, अगर जानता तो ऐसी सराय में कभी थूकने भी न आता।

तारासिंह ने धमकी के ढंग पर ऐसी-ऐसी बातें जमादार से कहीं कि वह डर गया और सोचने लगा कि नाहक मैंने इनसे पूछे बिना सराय का फाटक खोलकर किसी को जाने दिया, अगर किसी को जाने न देता तो बेशक इनका माल सराय के अन्दर से ही निकल आता, अब बेशक मैं दोषी ठहरता हूँ, ताज्जुब नहीं कि सौदागर की बातों पर दीवान साहब को भी यह शक हो जाय कि जमादार ने रिश्वत ली है। अगर ऐसा हुआ तो मैं कहीं का भी न रहूँगा, मेरी बड़ी दुर्गति की जायगी। चोरी भी ऐसी नहीं है कि जिसे मैं अपने से पूरी कर सकूँ––इत्यादि बातें सोचता हुआ जमादार बहुत ही घबरा गया और बड़ी नर्मी और आजिजी के साथ तारासिंह से माफी माँगकर बोला, "निःसंदेह मुझसे बड़ी भूल हो गई, मगर मैं आपसे वादा करता हूँ कि उस चोर को जो मुझे धोखा देकर और फाटक खुलवाकर चला गया है, अभी गिरफ्तार कर लूँगा, परन्तु मेरी जिन्दगी आपके हाथ में है, अगर आप मुझ पर दया करके फाटक खोल देने वाले मेरे कसूर को छिपावेंगे तो मेरी जान बच जायगी, नहीं तो राजा साहब मेरा सिर कटवा डालेंगे और इससे आपका कुछ लाभ न होगा। मैं कसम खाकर कहता हूँ कि मैंने उससे एक कौड़ी भी रिश्वत में नहीं ली है! मुझे उस कम्बख्त ने पूरा धोखा दिया है, मगर मैं उसे निःसन्देह गिरफ्तार करूँगा और आपकी रकम को जाने न दूँगा। यदि आपको मुझ पर शक हो और आप समझते हों कि मैंने रिश्वत ली है तो फाटक पर चलकर मेरी कोठरी की तलाशी ले लीजिए और जो कुछ निकले, चाहे वह आपका दिया हो या मेरा खास हो, वह सब आप ले लीजिए मगर आप मेरी जान बचाइये!"

जमादार ने तारासिंह की हद से ज्यादा खुशामद की और यहाँ तक गिड़गिड़ाया कि तारासिंह का दिल हिल गया मगर अपना काम निकालना भी बहुत जरूरी था इस[ ७४ ]लिए चालबाजी के साथ उसने जमादार का कसूर माफ करके कहा, "अच्छा मैं कसूर तो तुम्हारा माफ कर देता हूँ मगर इस समय जो कुछ मैं तुमसे कहता हूँ उसे बड़ी होशियारी के साथ करना होगा, अगर कसर करोगे तो तुम्हारे हक में अच्छा न होगा।"

जमादार––नहीं-नहीं, मैं जरा भी कसर न करूँगा, जो कुछ आप हुक्म देंगे, वही करूँगा, कहिये क्या आज्ञा होती है?

तारासिंह––एक तो मैं अपनी जुबान से झूठ कदापि न बोलूँगा।

जमादार--(काँपकर) तब मेरी जान कैसे बचेगी?

तारासिंह––तुम मेरी बात पूरी हो लेने दो––दूसरे यहाँ से तुरन्त चले जाने की जरूरत भी है, इसलिए मैं अपने इन (अपने शागिर्दो की तरफ इशारा करके) दोनों साथियों को यहाँ छोड़ जाता हूँ, तुम जब चोर को गिरफ्तार करके अपने राजदीवान या राजा के पास जाना तो इन्हीं दोनों को ले जाना, ये दोनों आदमी अपने को मेरा नौकर कहकर चोरी गई हुई चीजों को बखूबी पहचान लेंगे और ये चोरी के समय मेरा यहाँ मौजूद रहना तथा तुम्हारा कसुर कुछ भी जाहिर न करेंगे और तुम भी इस बात को जाहिर मत करना कि सौदागर का गुमाश्ता भी यहाँ मौजूद था। ये दोनों आदमी अपने काम को पूरी तरह से अंजाम दे लेंगे। हाँ एक बात कहना तो भूल गया, इस सराय के अन्दर जितने आदमी हैं उन सभी की भी तलाशी ले लेना।

जमादार––(दिल में खुश होकर) जरूर उन सभी की तलाशी ले ली जायगी और जो कुछ आपने आज्ञा दी है वह सब किया जायगा। आप अपना हर्ज न कीजिए और जाइए, यहाँ मैं किसी तरह का नुकसान होने न दूँगा।

सौदागर––(तारासिंह) चला जायगा, यह जानकर जमादार अपने दिल में बहुत प्रसन्न हुआ क्योंकि इनके रहने से उसे अपना कसूर प्रकट हो जाने का डर भी था।

जमादार से और भी कुछ बातें करने के बाद तारासिंह अपने दोनों शागिर्दो को एकान्त में ले गया और हर तरह की बातें समझाने के बाद यह भी कहा, "तुम लोग मेरे चले जाने के बाद किसी तरह घबराना नहीं और मुझे हर वक्त अपने पास मौजूद समझना।"

इन सब बातों से छुट्टी पाकर तारासिंह अकेले ही वहाँ से रवाना हो गया।