निर्मला/१२

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निर्मला
द्वारा प्रेमचंद
[ १५१ ]
 

बारहवाँ परिच्छेद

तीन दिन गुज़र गए; और मुन्शी जी घर न आए! रुक्मिणी दोनों वक्त अस्पताल जाती; और मन्साराम को देख आती थी। दोनों लड़के भी जाते थे; पर निर्मला कैसे जाती? उसके पैरों में तो बेड़ियाँ पड़ी हुई थीं। वह मन्साराम की बीमारी का हाल-चाल जानने के लिए व्यग्र रहती थी, यदि रुक्मिणी से कुछ पूछती थी, तो ताने मिलते थे; और लड़कों से पूछती, तो वे बेसिर-पैर की बातें करने लगते! एक बार खुद जाकर देखने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। उसे यह भय होता था कि सन्देह ने कहीं मुन्शी जी के पुत्रप्रेम को शिथिल न कर दिया हो, कहीं उनकी कृपणता ही तो मन्साराम के अच्छे होने में बाधक नहीं हो रही है? डॉक्टर किसी के सगे नहीं होते, इन्हें तो अपने पैसों से काम है, मुर्दा दोज़ख़ में जाय या बिहिश्त में। उसके मन में प्रबल इच्छा होती [ १५२ ]थी कि जाकर अस्पताल के डॉक्टर को एक हजार की थैली देकर कहें-इन्हें बचा दीजिए,यह थैली आपकी भेंट है;पर उसके पास न तो इतने रुपये ही थे,न इतना साहस ही था। अब भी यदि वह वहाँ पहुँच सकती,तो मन्साराम अच्छा हो जाता। उसकी जैसी सेवा-सुश्रूषा होनी चाहिए,वैसी नहीं हो रही है,नहीं तो क्या तीन दिन तक ज्वर ही न उतरता? यह दैहिक ज्वर नहीं, मानसिक ज्वर है और चित्त के शान्त होने ही से इसका प्रकोप शान्त हो सकता है। अगर वह वहाँ रात भर भी बैठी रह सकती;और मुन्शी जी जरा भी मन मैला न करते,तो कदाचित् मन्साराम को विश्वास हो जाता कि पिता जी का दिल साफ है; और फिर उसके अच्छे होने में देर न लगती; लेकिन ऐसा होगा? मुन्शी जी उसे वहाँ देख कर प्रसन्नचित्त रह सकेंगे? क्या अब भी उनका दिल साफ नहीं हुआ? यहाँ से जाते समय तो ऐसा ज्ञात हुआ था। कि वह अपने प्रमाद पर पछता रहे हैं। ऐसा तो न होगा कि उसके वहाँ जाते ही मुन्शी जी का सन्देह फिर भड़क उठे और वह बेटे की जान लेकर ही छोड़े!

इसी दुविधा में पड़े-पड़े तीन दिन गुज़र गए;और न घर में चूल्हा जला,न किसी ने कुछ खाया। लड़कों के लिये बाजार से पूरियाँ मँगा ली जाती थीं। रुक्मिणी और निर्मला भूखी ही.सो जाती थीं। उन्हें भोजन की इच्छा ही न होती थी।

चौथे दिन जियाराम स्कूल से लौटा, तो अस्पताल होता हुआ घर आया। निर्मला ने पूछा-क्यों भैया,अस्पताल [ १५३ ]भी गए थे? आज क्या हाल है? तुम्हारे भैया उठे या नहीं?

जियाराम रुाँसा होकर बोला-अम्माँ जी, आज तो वह कुछ बोलते-चालते ही न थे। चुपचाप चारपाई पर पड़े जोर-जोर से हाथ-पाँव पटक रहे थे।

निर्मला के चेहरे का रङ्ग उड़ गया। घबरा कर पूछा-तुम्हारे वाबू जी वहाँ न थे?

जियाराम-थे क्यों नहीं। आज वह बहुत रोते थे! निर्मला का कलेजा धक-धक करने लगा। पूछा-डॉक्टर लोग वहाँ न थे?

जियाराम-डॉक्टर भी खड़े थे और आपस में कुछ सलाह कर रहे थे। सबसे बड़ा सिविल सर्जन अंग्रेजी में कह रहा था कि मरीज़ के देह में कुछ ताज़ा खून डालना चाहिए। इस पर वाबू जी ने कहा-मेरी देह से जितना खून चाहे ले लीजिए। सिविलसर्जन ने हँस कर कहा-आपके ब्लॅड ( Blood ) से काम नहीं चलेगा। किसी जवान आदमी का व्लॅड चाहिए,आखिर उसने पिचकारी से कोई दवा भैया के वाजू में डाल दी। चार अङ्गुल से कम की सुई न रही होगी;पर भैया मिनके तक नहीं। मैंने तो मारे डर के आँखें बन्द कर ली!

बड़े-बड़े महान् सङ्कल्प आवेश मे ही जन्म लेते हैं। कहाँ तो निर्मला भय से सूखी जाती थी,कहाँ उसके मुख पर दृढ़ सङ्कल्प: की आभा झलक पड़ी। उसने अपनी देह का ताजा खून देने का [ १५४ ]निश्चय कर लिया। अगर उसके रक्त से मन्साराम के प्राण बच जायँ,तो वह बड़ी खुशी से उसकी अन्तिम बूंद तक दे डालेगी। अब जिसका जो जी चाहे समझे,वह कुछ पर्वाह न करेगी। उसने जियाराम से कहा-तुम लपक कर एक एक्का बुला लो,मैं अस्पताल जाऊँगी।

जियाराम-वहाँ तो इस वक्त बहुत से आदमी होंगे। जरा रात हो जाने दीजिए!

निर्मला-नहीं,तुम अभी एक्का बुला लो!

जियाराम-कहीं बाबू जी बिगड़ें न!

निर्मला-बिगड़ने दो!तुम अभी जाकर सवारी लाओ।

जियाराम-मैं कह दूंगा,अम्माँ जी ही ने मुझसे सवारी मँगवाई थी।

निर्मला-कह देना!

जियाराम तो उधर ताँगा लाने गया,इधर इतनी देर में निर्मला ने सिर में कची की,जूड़ा बाँधा,कपड़े बदले,आभूषण पहने,पान खाया और द्वार पर आकर ताँगे की राह देखने लगी।

रुक्मिणी अपने कमरे में बैठी हुई थी। उसे इस तैयारी से आते देख कर बोली-कहाँ जाती हो बहू?

निर्मला-जरा अस्पताल तक जाती हूँ।

रुविमणी-वहाँ जाकर क्या करोगी?

निर्मला कुछ नहीं,करूँगी क्या? करने वाले तो भगवान हैं। देखने को जी चाहता है। [ १५५ ]रुक्मिणी-मैं कहती हूँ मत जाओ!

निर्मला ने विनीत भाव से कहा-अभी चली आऊँगी,दीदी जी! जियाराम कह रहे हैं कि इस वक्त उनकी हालत अच्छी नहीं है! जी नहीं मानता,आप भी चलिए न!

रूक्मिनी-मैं देखआई हूँ। इतना ही समझ लो कि अब बाहरी खून पहुँचने ही पर जीवन की आशा है। कौन अपना ताज़ा खून देगा; और क्यों देगा? उसमें भी तो प्राणों का भय है।

निर्मला-इसीलिए तो मैं जाती हूँ। मेरे खून से क्या काम न चलेगा?

रुक्मिणी-चलेगा क्यों नहीं,जवान ही का खून तो चाहिए;लेकिन तुम्हारे खून से मन्सा की जान बचे, इससे यह कहीं अच्छा है कि उसे पानी में बहा दिया जाय!

ताँगा आ गया। निर्मला और जियाराम दोनों जा बैठे! ताँगा चला!

रुक्मिणी द्वार पर खड़ी देर तक रोती रही। आज पहली बार उसे निर्मला पर दया आई। उसका बस होता तो वह निर्मला को बाँध रखती। करुणा और सहानुभूति का आवेश उसे कहाँ लिए जाता है,यह वह अप्रकट रूप से देख रही थी। आह! यह दुर्भाग्य-प्रेरणा है,यह सर्वनाश का मार्ग है!

निर्मला अस्पताल पहुंची,तो दीपक जल चुके थे। डॉक्टर लोग अपनी-अपनी राय देकर बिदा हो चुके थे। मन्साराम का ज्वर कुछ कम हो गया था। वह टकटकी लगाए द्वार की ओर देख [ १५६ ]रिहा था। उसकी दृष्टि उन्मुक्त आकाश की ओर लगी हुई थी, मानो किसी देवता की प्रतीक्षा कर रहा हो। वह कहाँ है, किस दशा में है,इसका उसे कुछ ज्ञान न था!

सहसा निर्मला को देखते ही वह चौंक कर उठ बैठा। उसकी समाधि टूट गई। उसकी विलुप्त चेतन प्रदीप्त हो गई। उसे अपनी स्थिति का-अपनी दशा का ज्ञान हो गया,मानो कोई भूली हुई बात याद आ गई हो। उसने आँखें फाड़ कर निर्मला को देखा और मुँह फेर लिया।

एकाएक मुन्शी जी तीव्र स्वर में बोले-तुम यहाँ क्या करने आई? निर्मला अवाक् रह गई। वह बतलाए कि क्या करने आई! इतने सीधे से प्रश्न का भी वह क्या कोई जवाब न दे सकी! वह क्या करने आई? इतना जटिल प्रश्न किसके सामने आया होगा? घर का आदमी बीमार है,उसे देखने आई है,यह बात क्या बिना पूछे मालूम न हो सकती थी? फिर यह प्रश्न क्यों?

वह हत्बुद्धि सी खड़ी रही,मानो संज्ञाहीन हो गई हो! उसने दोनो लड़कों से मुन्शी जी के शोक और सन्तोस की बातें सुन कर यह अनुमान किया था कि अब उनका दिल साफ हो गया है। अब उसे ज्ञात हुआ कि वह भ्रम था। हाँ, वह महा भ्रम था। अगर वह जानती कि आँसुओं की वृष्टि ने भी सन्देह की अग्नि शान्त नहीं की, तो वह यहाँ कदापि न आती। वह कुढ़कुढ़ कर मर जाती; पर घर से बाहर पाँव न निकालती!!

मुन्शी जी ने फिर वही प्रश्न किया-तुम यहाँ क्यों आई? [ १५७ ]निर्मला ने निःशङ्क भाव से उत्तर दिया-आप यहाँ क्या: करने आए हैं?

मुन्शी जी के नथने फड़कने लगे। वह झल्ला कर चारपाई से उठ और निर्मला का हाथ पकड़ कर वोले-तुम्हारे यहाँ आने की कोई ज़रूरत नहीं। जब मैं बुलाऊँ तव आना,समझ गई।

अरे! यह क्या अनर्थ हुआ? मन्साराम जो चारपाई से हिल भी न सकता था,उठ कर खड़ा हो गया और निर्मला के पैरों पर गिर कर रोते हुए बोला-अम्मां जी,इस अभागे के लिए आपको व्यर्थ इतना कष्ट हुआ? मैं आपका स्नेह कभी न भूलूँगा। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा पुनर्जन्म आपके गर्भ से हो,जिससे मैं आपके ऋण से उऋण हो सकूँ। ईश्वर जानता है,मैंने आपको विमाता नहीं समझांं। मैं आपको अपनी माता समझता रहा। आपकी उन्न मुझसे बहुत ज्यादा न हो;लेकिन आप मेरी माता के स्थान पर थीं;और मैंने आपको सदैव इसी दृष्टि देखा......अव नहीं वोला जाता;अम्माँ जी,क्षमा कीजिए! यह अन्तिम भेट है!!

निर्मला ने अश्रु-प्रवाह को रोकते हुए कहा-तुम ऐसी बातें क्यों करते हो? दो-चार दिन में अच्छे हो जाओगे!

मन्साराम ने क्षीण स्वर में कहा-अब जीने की इच्छा नहीं;और न वोलने की शक्ति ही है!

यह कहते-कहते मन्साराम अशक्त होकर वहीं जमीन पर लेट [ १५८ ]गया। निर्मला ने पति की ओर निर्भय नेत्रों से देखते हुए कहा-डॉक्टरों ने क्या सलाह दी?

मुन्शी जी-सब के सब भङ्ग खा गए हैं। कहते हैं ताजा खून चाहिए।

निर्मला-ताजा खून मिल जाय,तो प्राण-रक्षा हो सकती है?

मुन्शी जी ने निर्मला की ओर तीव्र नेत्रों से देख कर कहा-मैं ईश्वर नहीं हूँ; और न डॉक्टरों ही को ईश्वर समझता हूँ।

निर्मला-ताजा खुन तो ऐसी अलभ्य वस्तु नहीं!

मन्शी जी-आकाश के तारे भी तो अलभ्य नहीं! मुँह के सामने खन्दक क्या चीज़ है!

निर्मला-मैं अपना खून देने को तैयार हूँ! डॉक्टर को बुलाइए!!

मुन्शी जी ने विस्मित होकर कहा-तुम!

निर्मला-हाँ! क्या मेरे खून से काम न चलेगा?

मुन्शी जी-तुम अपना खून दोगी! नहीं,तुम्हारे खून की जरूरत नहीं! इसमें प्राणों का भय है!!

निर्मला-मेरे प्राण और किस दिन काम आवेंगे?

मुन्शी जी ने सजल नेत्र होकर कहा-नहीं निर्मला,उनका मूल्य अब मेरी निगाहों में बहुत बढ़ गया है!आज तक वह मेरे भोग की वस्तु थी;आज से वह मेरी भक्ति की वस्तु है। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है,क्षमा करो!