यह गली बिकाऊ नहीं/20

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बीस
 

आवाज से लगा कि गोपाल ने खब पी हुई है।

"माधवी वहाँ है या घर चली गयी?"―लड़खड़ाते स्वर में गोपाल ने पूछा। उसके सवाल का, बिना जवाब दिये, मुत्तुकुमरन् ने चोंगा माधवी के कानो में लगाया। वहीं प्रश्न वैसे ही स्वर में दुबारा उसके कानो में भी पड़ा। मुत्तुकुमरन् ने उसके चेहरे पर उग आए भावों को पड़ने का प्रयत्न किया कि उसके मन में वह पुराना भय अब भी घर किये हुए है या नहीं? उसने आँखें गड़ाकर देखते हुए पूछा, "क्या जवाब दूं? पहले भी जब हम दोनों समुद्र तट पर घूमने गये थे, तब तुमने कहा था कि इन बातों का उन्हें पता न होने पाए! उस समय तुम्हें गोपाल का डर था। क्या अब भी वह चर तुममें है या..."

"बात-बात पर पुराने जख्मों को कुरेदना छोड़िये। आज मैं किसी से किसी भी बात के लिए नहीं डरती। आप इन्हें जो भी जवाब देना चाहें, दीजिये! मुझसे न पूछिये।"

उसकी आवाज में जो निश्चय-भरा धैर्य था, वह इसे पहचान गया।

फ़ोन पर लगातार गोपाल उसी एक सवाल को रटे जा रहा था, मानो कोई मंत्र-जाप कर रहा हो। मुत्तुकुमरन् ने साफ़ और गंभीर स्वर में कहा, "हाँ! यहीं हैं!"

दूसरे छोर से झट से चोंगा नीचे पटकने की ध्वनि आयी।

"इसीलिए मैंने यह कहा था कि आप जगह दें, तभी मैं यहाँ ठहर सकती हूं।"

"जब दिल में ही जगह दे दी, तो यहाँँ देने में क्या हर्जं है? और वह भी तुमने पा ही लिया।"

सिंगापुर में शॉपिंग करते हुए माधवी ने कुछ इत्र खरीदा था। साज-सिंगार कर वह जब हवाई अड्डे के लिए चली थी, वही इत्र लगाकर चली थी। अँधेरे में किसी एक वनदेवी की भाँति सुरभि बिखेरती वह उसके सामने खड़ी हुई। मुत्तुकुमरन ने टकटकी लगाकर उसे यों देखा, मानो अभी-अभी पहली बार देख रहा हो।

"लीजिए, तकिया!"

"नहीं! मुझे बहुत मुलायम तकिया चाहिए!" मुत्तुकुमरन् ने उसका सुनहरा कंधा छूते हुए ढीठ हँसी हँसा।

"हे भगवान्! मैं यह समझ रही थी कि इस घर में, कम-से-कम इस कमरे में मुझे सुरक्षा मिलेगी! पर यहाँ की हालत तो और भी बुरी है!" उसने झूठा गुस्सा [ १४८ ] उतार फेंका तो उसके होंठ मुस्करा उठे! चेहरे का वह निखार देखकर मुत्तुकुमरन् निहाल हो गया।

"जमीन बड़ी ठंडी है। हठ पकड़ोगी तो कल नाहक़ को बुखार चढ़ आयेगा!"

"तो अब मैं क्या करूँ?"

'बहुत दिनों से अभिनय करते-करते तुम भी ऊब गयी हो और मैं भी! अब हमें नया जीवन जीना है।"

मुत्तुकुमरन् ने उठकर उसके हाथ पकड़ें। वह उसके हाथ की वीणा बनकर उसपर झुक पड़ी। उसकी लंबी-चौड़ी छाती और उभरे हुए कंधे, फूल जैसे माधवी के कर-कमलों के घेरे में नहीं आये। मुत्तुकुमरन् उसके कानों में बुदबुदाया, "क्यों, कुछ बोलती क्यों नहीं?"

दुनिया की पहली औरत की भाँति उसके आगे उसकी आँखें लज्जा से अवनत हो गयीं।

"बोलती क्यों नहीं?"

माधवी ने लंबी साँस खींची। उसकी साँँस-साँस प्रेम-लहरी बनकर उसके कानों में गूंज उठी।

"संसारिक्कुम् पाडिल्ला?” उसने अपनी मलयालम भाषा का ज्ञान प्रदर्शित किया तो वह अपनी हँसी नहीं रोक सकी। फूल जैसे उसके हाथ, उसके कंधे सहला रहे थे। दोनों के बीच फैला मौन मानो संतोष की सीमा छू रहा हो।

उन कंधों पर सर रखकर माधवी उस रात सुख और सुरक्षा की नींद सो पायी।

बड़े तड़के उठकर उसने वहीं स्नान किया। नयी साड़ी पहनकर वह मुत्तुकुमरन्के सामने आयी तो मुत्तुकुमरन् को लगा कि ऊषा-सुन्दरी हँसती हुई उसके सामने प्रकट हो रही हो।

उसी समय गोपाल 'नाइट गाउन' में वहाँ पर आया। माधवी पर उसकी दृष्टि गयी तो उसकी आँखों में घृणा का भाव तिर गया। उससे वह बोल नहीं पाया। उसे भी यह समझते देर नहीं लगी कि वह उसपर बहुत नाराज है। सहसा गोपाल मुत्तुकुमरन् से व्यापारिक ढंग की बातें करने लगा―

"तुमने मेरे बदले क्वालालम्पुर में आठ नाटक और मलाका में तीन नाटक― कुल मिलाकर ग्यारह नाटक खेले हैं।"

"हाँ, खेले हैं। तो क्या...?"

"बात यह है कि पैसे को लेकर भाई-भाई में भी झगड़ा हो जाता है!"

"हो सकता है कि हो! पर गोपाल, आज तुम्हें अचानक हो क्या गया?"

ग्यारह बार नाटक खेलने के लिए पंद्रह हज़ार रुपये और नाटक लिखने के लिए पाँच हज़ार रुपये—कुल मिलाकर बीस हज़ा रुपयों का एक चेक कल ही रात [ १४९ ] साइन कर रखा है। यह लो।"

मुत्तुकुमरन् पहले जरा झिझका। फिर मन-ही-मन कुछ सोचकर, बिना कुछ आपत्ति उठाये, गोपाल के हाथ से अचानक वह चेक ले लिया। दूसरे क्षण मुत्तुकुमरन् के मुंह से जो सवाल निकला, गोपाल ने उसकी आशा ही नहीं की थी।

"माधवी का क्या हिसाब है? उसे भी अभी देख कर साफ़ कर दोगे?"

"उसका हिसाव पूछनेवाले तुम कौन होते हो?" गोपाल के मुँँह से ऐसे प्रश्न की आशा मुत्तुकुमरन् ने की ही कहाँ थी?

"मैं कौन होता हूँ? मैं ही आज से उसका सब कुछ हूँ। अगले शुक्रवार को गुरुवायुर में मेरा और उसका विवाह है। अब वह तुम्हारे साथ अभिनय भी नहीं करेगी।"

"यह बात तो उसी को मुझसे कहना चाहिए, तुमको नहीं।"

"वह तुम्हारे साथ बात तक नहीं करना चाहती। इसीलिए मैं कह रहा हूँ।"

"मैंने तुम्हें अपना गहरा दोस्त समझकर इस घर में घुसने दिया।"

"मैंने इस दोस्ती के साथ कोई विश्वासघात नहीं किया।"

"अच्छा, तो फिर ऐसी बातें क्यों? एक म्यान में दो तलवारें नहीं समा सकतीं। पांच मिनट ठहरो! माधवी का भी हिसाब साफ़ किये देता हूँ।" कहकर गोपाल ने वहीं से पर्सनल सेक्रेटरी को फोन किया। दस मिनट में वह एक 'चेक लीफ़' के साथ आया। गोपाल ने माधवी के नाम बीस हजार रुपये का एक चेक लिखकर दिया।

"पैसे तो तुमने दे दिये गोपाल! पैसे जरूर दे दिये। लेकिन एक बात याद रखना कि कभी-कभी मनुष्य की मदद रुपयों से आँँकी नहीं जा सकती। इन पैसों को तुम्हारे मुँह पर दे मारने के बदले, इन्हें लेने का एक कारण भी हैं। आज इस दुनिया में रुपयों-पैसों से बढ़कर जो मान-मर्यादा है, उनकी रक्षा के लिए भी पाप में पगे इन रुपयों की बड़ी ज़रूरत पड़ती है। इसी वजह से इस रुपयों का हिसाब करके इन पर अपना हक़ जताकर ले रहा हूँ।"

गोपाल उसकी बातों पर कान न देकर वहाँँ से चल दिया। मुत्तुकुमरन् ने अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर रख लिया। माधवी ने भी उसके काम में उसका हाथ बँटाया। दस-पन्द्रह मिनट में 'आउट हाउस' खाली करके उन्होंने सभी सामान बरामदे पर लाकर रख दिये।

माधवी बोली, "झगड़ा तो मेरे कारण हुआ। मुझे रात को ही घर चला जाना चाहिए था।

"फिर तुम्हारी बातों में भय सिर उठाता-सा मालूम होता है, माधवीं! ऐसा, एक झगड़ा होने के कारण ही तो मैं खुश हो रहा हूँ। लेकिन तुम, ठीक इसके उल्टे नाहक़ चिन्ता करने लग गयी हो। तुम समझती हो कि आगे भी हम इसके साथ [ १५० ] रह सकते हैं? यों अभिनय करते रहें तो अक़्ल निश्चय ही मारी जायेगी। हमें जीना भी हैं। बिना जीवन जिये, कोई हमेशा अभिनय करता रहे तो कला कला नहीं रहेगी और उससे अच्छी कला नहीं पनपेगी। गोपाल को अपना जीवन सुधारना है और उसे नियम से जीना है तो उसे विवाह करके नियमबद्ध जीवन जीने का अभ्यास करना चाहिए। नहीं तो वह सिर्फ़ बुरा ही नहीं, बरबाद भी हो जायेगा। इसी बँगले को ही लो, यह भूत-बँगला बना हुआ है। द्वार पर चौक पूरने के लिए इस घर में कोई सुमंगला स्त्री नहीं। नौकर-चाकर, बाग-बगीचे, गाड़ी-बाड़ी, रुपये-पैसे सब कुछ हैं भी तो उनका क्या फ़ायदा? एक बच्चे की तोतली बोली भी अब तक इस बँगले में सुनायी नहीं पड़ी। लक्ष्मी भला ऐसी जगह में निवास करेगी?"

माधवी यों मौन रही, मानो उसकी सारी बातों में हामी भर रही हो। 'आउट हाउस' के द्वार पर खड़े होकर दोनों बातें कर रहे थे कि छोकरा नायर वहाँ पर आया। माधवी ने उसे एक टैक्सी लाने के लिए भेजा। टैक्सी आयी। लड़का माधवी से अकेले में कुछ बोल रहा था। उसकी आँखें छलक रही थीं।

"आपके पास पाँच रुपये हैं तो दीजिये!" कहकर माधवी ने मुत्तुकुमरन् से पाँच रुपये लिये और उस लड़के के हाथ में रख दिया। लड़के ने हाथ जोड़े। उसकी आँखें फिर भर आयी थीं।

"अगले हफ्ते पिनांग से जहाज के आ जाने पर उदयरेखा इसी आउट हाउस में आकर ठहरनेवाली है। गोपाल के मुख से लड़के ने यह बात सुनी है।"―माधवी ने बताया।

"सो तो ठीक है। अब्दुल्ला उसे पिनांग से आने दे तब न?"

सुनकर माधवी को हँसी आयी।

"छोड़ो ये भद्दी बातें। अच्छी बातें करो।" मुत्तुकुमरन् ने कहा।

दोनों टैक्सी पर बैठे। लड़का मुत्तुकुमरन् और माधवी के सामान टैक्सी पर रखकर एक ओर खड़ा हुआ। मुत्तुकुमरन् ने माधवी से पूछा, "कहाँ चलें? तुम्हें अपने घर में छोड़कर मैं एग्मोर लाज चला जाऊँ?"

"हैं, बड़े बनते हैं। लाज जाते लाज नहीं आती? मैं तो सान भी लू, लेकिन आपको सास नहीं मानेगी। बिना जिद पकड़े सीधे हमारे घर आइये।"

माधवी की ये बातें उसे बहुत पसन्द आयीं।

टैक्सी बढ़ी। टैक्सीवाले को लाइडस रोड जाने को कहकर माधवी मुत्तुकुमरन् की ओर मुड़ी। मुत्तुकुमरन् ने उससे पूछा, "और एक बात तुमसे पूछू?"

"पूछिये।"

"घर में कितनी चारपाइयाँ हैं ?"

"क्यों, दो हैं।"

"नहीं होनी चाहिए।" [ १५१ ]"यह भी कैसी गुस्ताखी है!" होंठों पर उँगलियाँ रखकर उसने उसे डाँटने का अभिनय किया तो मुत्तुकुमरन् उसपर ऐसा रीझ गया कि उसकी हर बात में, हर हाव-भाव में अनेकों गूढ़ार्थ टपकते-से मालूम हुए। अभिधा, लक्षणा, व्यंजना, रस, छंद एवं अलंकारों से गुम्फित कविता-सी माधवी उसकी कल्पना की आँखों में उभर आयी। उसने दोनों होंठों पर उँगलियाँ रखकर डाँटने का जो अभिनय किया था; उससे उसके सत्य, शिव, सुन्दर स्वरूप को कविता में चित्र-रूप देने की इच्छा मुत्तकुमरन् के मन में उमग रही थी। पर तब तक टैक्सी माधवी के घर के द्वार पर जा खड़ी हुई थी। माधवी की माँ ने उनका सहर्ष स्वागत किया।

टैक्सी का भाड़ा चुकाते हुए मुत्तुकुमरन से टैक्सीवाले ने पूछा, "इन्होंने फिल्मों में काम किया है न?"

"हाँ, किया है। पर आगे नहीं करेंगी।" मुत्तुकुमरन् ने निर्मम उत्तर दिया।

माधवी पहले ही उतरकर घर के अंदर चली गयी थी। अंदर जाते ही मुत्तुकुमरन ने पहला काम यह किया कि माधवी से टैक्सीवाले के प्रश्न और अपने उत्तर को ज्यों-का-त्यों दुहराया।

सुनकर माधवी हँसी और बोली, “वह टैक्सी ड्राइवर आप पर जहर उगलते हुए कह गया होगा कि आपकी वजह से सिने-दुनिया को बड़ा नुकसान पहुंच गया!"

"ऐसा कभी नहीं होगा। नुकसान भरने के लिए न जाने कितनी उदयरेखायें आ धमकेंगी!"

माधवी एक बार फिर हँस पड़ी।

अगले शुक्रवार को गुरुवायुर के श्रीकृष्ण के मन्दिर में मुत्तुकुमरन् और माधवी का शुभ-विवाह सम्पन्न हुआ। न किसी रसिक के पास से बधाई का पत्र आया और न कोई प्रसिद्ध फ़िल्म-निर्माता उस विवाह को सुशोभित करने को पधारा। विवाह के उपरांत उनसे प्रणाम लेने के लिए सिर्फ़ माधवी की माँ उपस्थित थी।

उस दिन रात को वे एक टैक्सी करके मावेली करै पहुँचे। मावेली करै माधवी की जन्म-स्थली थी। फिर भी वहाँ उसके लिए कोई घर-द्वार नहीं था। वे किसी रिश्तेदार के यहाँ उस रात को ठहरे। रात के भोजन के बाद माधवी और मुत्तुकुमरन् के एकांत के लिए एक कमरा मिला तो माधवी बोली, "देखा, सभी ने मिलकर साजिश करके इस कमरे में एक ही खाट छोड़ी है।"

वह हँसा। माधवी उसके निकट गयी। उसके केश-भार में बेले के फूल गमा-गम महक रहे थे। मुत्तुकुमरन् ने उसे पास खींचकर बिठाया और उसका सिर ऐसा चूमा कि बेले की महक से उसकी नासिका भर गयी।

"माधवी! न जाने कितनी सदियाँ पहले इस बात का निर्णय हो चुका है कि [ १५२ ] किसी औरत को समाज की लम्बी सड़कों पर निडर और निस्संकोच होकर चलना है तो ऐसी एक सुरक्षित खाट से उतरकर ही वह चल सकती है। समाज की सड़कों में आज भी कई रावण निरन्तर विचरण कर रहे हैं।"

"आप अब्दुल्ला की बात कर रहे हैं?"

"अब्दुल्ला, गोपाल―सभी की। एक से दूसरा, दूसरे से तीसरा होड़ लगाकर अभिनय कर रहा है।"

वह बिना कोई उत्तर दिये, उसके हृदय से लिपट गयी। उसी हृदय ने उसे ऐसा सुख दिया कि आज वह अपनी निजी खाट पर सुख की नींद ले रही हो।

मर्दों के समाज में, जब पहले रावण का जन्म हुआ, तभी इस बात का पक्का निश्चय हो गया था कि औरतों को सोने के लिए एक ऐसी ही खाट और एक ऐसे ही साथी की ज़रूरत है।

जब तक रावणों का गुट समाज में विद्यमान है, तब तक नारी समाज धूल-धूसरित गंदी गलियों में, बिना साथी के, अकेले जा कैसे सकता है? कौन जाने, समाज की वह गंदी गली कब साफ़-सुथरी होगी? [ परिचय ]'यह गली विकाऊ नहीं' मद्रास के व्यावसायिक रंग जगत् और फिल्मोद्योग में कला के नाम पर की जाने वाली झूठी साधना और ऐसे तथाकथित कलाकारों के खोखले मूल्यों का पर्दाफ़ाश करती है।

इस अभियान में पारम्परिक रंग कला का समर्पित और स्वाभिमानी युवा कलाकार मुत्तुकुमरन् सबसे आगे है और वह ऐसे सारे प्रलोभनों को ठुकराकर, कला की तमाम शर्तों को सामाजिकता, मानवता और नैतिकता की कसौटी पर कसकर ही नया समाज गढ़ना चाहता है। समाज के वर्तमान घिनौने स्वरूप के लिए ज़िम्मेदार लोगों से उसकी लड़ाई शुरू होती है। सिने जगत् के एक सुप्रसिद्ध 'स्टार' गोपाल के मुक़ाबिले कला-सृजन और रंग प्रस्तुति के हर क्षेत्र में, प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद वह अडिग खड़ा रहता है। मुत्तुकुमरन् समाज सेवा और कला-साधना के नाम पर कला को गन्दी गलियों में बेचने वालों से जमकर लोहा लेता है। अनन्य समर्पण और सर्जक की निष्ठा के अतिरिक्त उसके पास कुछ भी नहीं। यही शक्ति उसे समाज और कला के व्यापक और वृहत्तर संदर्भो तथा मूल्यों से जोड़ती है।

चरम उद्योग के रूप में स्थापित फ़िल्म जगत् के फ़िल्मकारों की जगमगाती दुनिया और चमचमाती राहों और कारों की गड्डमड्ड में सच्चे कलाकार भी भटक गए हैं। ऊंचे विचारवान और प्रौढ़ कला साधकों की अनुपस्थिति में सारे रंग जगत् में ऐसी सौदेबाज़ी और मक्कारी भरी लूट चल रही है कि जी घुटता है। यहाँ सब कुछ सिक्कों से खरीदा जा रहा है। कला के आधारभूत मूल्यों की चर्चा करते हुए यह आशंका व्यर्थ नहीं है कि समाज में सच्चे कला साधकों के हितों की रक्षा नहीं हो पा रही है।

मूलतः तमिल में लिखित इस उपन्यास की वृहत पृष्ठभूमि में मद्रास महानगर ही नहीं, सूदूर दक्षिण पूर्वी प्रायद्वीप के देशों―सिंगापुर, मलेशिया एवं अन्यान्य द्वीप-पुंज का सौंदर्य भी बड़ी प्रामाणिकता से चित्रित है।

साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत एवं चर्चित कथा-कृति 'समुदाय वीथि' का श्री रा. वीलिनाथन द्वारा सर्वथा प्रामाणिक और रोचक अनुवाद।

बीस रुपये
 
आवरण : रणजीत साहा