यह गली बिकाऊ नहीं/19

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उन्नीस
 


उस दिन नाटक के पहले मुत्तुकुमरन् ने जल्दी-जल्दी संवाद और दृश्यों के क्रम को उलट-पलटकर देखा । संवाद उसके थे; निर्देशन उसका था। दर्शकों की गैलरी में बैठकर उसने कुछेक बार सबकुछ देखा भी था । अत: सारे दृश्य उसे याद थे। इसके अलावा स्वयं कवि भी था। परिस्थितियों के अनुसार, नये संवाद गढ़कर वह मंच पर बोल भी सकता था। एक ओर उसे अपने ऊपर विश्वास था और दूसरी ओर माधवी पर ! अच्छी अभिनेत्री होने से उसे विश्वास था कि वह अपनी ओर से कोई कोर-कसर उठा नहीं रखेगी।

अब्दुल्ला को सबसे बड़ा डर था कि कहीं दर्शकों को इस बात का पता न लग जाए कि गोपाल भूमिका नहीं कर रहा है, तो क्या हो? वे सिर्फ गुल-गपाड़ा ही नहीं मचायेंगे; कुर्सी उठाकर मारेंगे! यह डर एक ओर तो दूसरी ओर यह विश्वास भी था कि मुत्तुकुमरन् गोपाल से भी कहीं अधिक खूबसूरत है और दर्शकों को बाँधे रखने की क्षमता उसके गंभीर व्यक्तित्व में है।

मुत्तुकुमरन् के आत्म-विश्वास ने अविश्वास को स्थान ही नहीं दिया । वह निश्चित होकर नायक की भूमिका करने को तैयार हो गया। दर्शकों को इस बात .. का भान तक नहीं हुआ था कि गोपाल पीकर बाथरूम में गिर पड़ा है और उसके पैर की हड्डी खिसक गयी है। अतः बे बड़ी शांति से परदा उठने की राह देख रहे थे. । अब्दुल्ला इस बात को लेकर बहुत चिंतित थे कि मुत्तुकुमरन की गोपाल जैसी 'स्टार वैल्यू' नहीं है । गोपाल ने क्वालालम्पुर में पहले दिन के नाटक में भाग लेकर अपनी और अपनी भूमिका की धाक जमा रखी थी। इसलिए हो सकता है कि दर्शक गोपाल और मुत्तुकुमरन के बीच फ़र्क ढूंढ़ निकालें । अब्दुल्ला का यह शक नाटक प्रारंभ होने ही तक था!

नाटक शुरू होने के बाद दर्शकों का ध्यान इस बात की ओर बँटा ही नहीं। परदा उठते ही मुत्तुकुमरन् मंच पर इस तरह अवतीर्ण हुआ मानो कामदेव ही राजा का वेश धारणकर सभा में विराज रहे हों। पिछले दिन इस दृश्य में गोपाल के प्रवेश पर जैसी तालियां बजीं, उससे कई गुना ज्यादा मुत्तुकुमरन के प्रवेश पर गड़गड़ाती रहीं । माधवी का सौंदर्य पिछली शाम के मुकाबले और भी निखर उठा [ १३९ ]
था। चमकदार जिल्द वाली अरबी घोड़ी जैसी स्फूर्ति के साथ वह मंच पर उतरी।

"मेरे हृदय मंच पर कंत नाचते तुम।

तुम्हारे संकेतों पर प्रिय, नाचती मैं।"

इस गीत पर उसने अप्रतिम नृत्य उपस्थित कर खूब वाह-वाही लूटी। मुत्तुकुमरन मेरे साथ भूमिका में है। इस विचार से माधवी और माधवी मेरे साथ भूमिका कर रही है-इस विचार से मुत्तुकुमरत्-दोनों स्वस्थ प्रतियोगिता से अपनी भूमिका निभाने लगे तो हर दृश्य में ऐसी करतल ध्वनि हुई कि पूरी दर्शक दीर्धा ही थरथरा उठी। उस दिन का नाटक अत्यन्त सफल रहा । सह्योगी कला- कारों और स्वयं अब्दुल्ला ने बात-बात पर मुत्तुकुमरन की तारीफ की।

"इसमें तारीफ़ करने की क्या बात है ? मैंने अपना कर्तव्य निबाहा, बस ! ढेर- सारा पैसा खर्च करके आपने हमें बुलाया और डर रहे थे कि कहीं बाटा उठाना न पड़ जाये। आपका भय दूर करने और अपने मित्र का मान रखने के लिए मुझे जो कुछ करना चाहिए था, मैंने किया !" मुत्तुकुमरन् बड़ी ही सहजता से उसे उत्तर दिया।

दूसरे दिन सवेरे वहाँ के दैनिक समाचार-पत्रों में पैर फिसलने से गोपाल के गिर जाने और हड्डी टूट जाने की खबर और पिछली शाम के नाटक में गोपाल की जगह नाटककार मुत्तुकुमरन को सफल भूमिका की खबरें साथ-साथ छपी थीं ।

सवेरे-सवेरे मुत्तुकुमरन् और माधवी गोपाल को देखने अस्पताल गए। "ठीक समय पर हाथ बंटाकर तुमने मेरी मान-रक्षा की है। इसके लिए मैं तुम्हारा बहुत आभार मानता हूँ !" कहकर गोपाल ने हाथ जोड़े।

"फिर तो यह भी कहो कि तुम मेरे ही भरोसे बोतल पर बोतल चढ़ाकर नशे में डूबे रहे कि समय पर तुम्हारी जाती हुई इज्जत को मैं किसी तरह बचा दूंगा। वाह रे वाह ! भाग्य से अखबारवालों ने तुम्हारी धज्जियाँ नहीं उड़ायी ! इतना ही लिखा कि तुम स्नानागर में फिसल कर गिर गये । बात की तह में जाकर क्यों गिरे, कैसे गिरे' का विवरण भी दिया होता तो जग-हँसाई. ही होती !" भुत्तुकुमरन् ने गोपाल को आड़े हाथों लिया ।

... "उस्ताद ! मानता हूँ कि मैंने बड़ी गलती की ! मेरी अक्ल मारी गयी थी। अब सोचने से क्या फ़ायदा? पीने के पहले ही सोचना चाहिए था ! मेरी अक्ल तब ठिकाने नहीं थी।"

"तुम्हारी अक्ल कब ठिकाने रही है. ? बोलो ! खैर, छोड़ो उन बातों को ! अब तबीयत कैसी हैं ? कल रात को अच्छी नींद आयी या नहीं ?'

"खूब अच्छी तरह सोया था । सवेरे उठने पर नाटक की याद आयी। फिर सोच लिया कि 'न्सल' हुआ होगा। अच्छा हुआ कि तुमने बचा दिया। अखबार

“पढ़ने पर सबकुछ मालूम हुआ। अब्दुल्ला ने भी आकर बताया कि तुम्हारा अभिनय [ १४० ]
मुझसे भी कहीं अधिक अच्छा रहा। "

'छिः ! छि: ! वैसा कुछ नहीं। बगर ग़लती के किमी तरह निभा दिया, बस !"

"यह तुम्हारी उदारता है। तुम बात छिपाते हो। अब्दुल्ला कह रहे थे कि तालियाँ ऐसी बजती रहीं कि रुकने का नाम नहीं लेती थीं। अखबारवालों ने भी तुम्हारी बड़ी तारीफ़ की है।”

"कोई हजार कहे गोपाल ! तुम तो अभिनय के लिए ही पैदा हुए हो ! तुम जैसा कोई काम करे तो कैसे करे?"

"अब ज्यादा न बोलिए। मरीज को आराम करना चाहिए !" नर्स ने आकर टोका तो वे उससे विदा लेकर चल पड़े।

मुत्तुकुमरन् और माधत्री के 'स्ट्रेथिट्स होटल' में आने के तुरंत बाद रेड्डियार के पास से फोन आया-..

"कल मैं भी नाटक देखने आया था । तुम्हें नायक के वेश में देखकर मुझे शक हुआ। जल्दी विश्वास नहीं आया । पर आज अखबार देखने पर मेरा सन्देह दूर हो गया । तुम्हारा अभिनय बहुत बढ़िया था । यों ही नहीं कहता । तुमने सचमुच कमाल कर दिया ! हाँ, अब गोपाल की तबीयत कैसी है ? क्या मैं आकर देख सकता हूँ?"

"आज नहीं। कह रहे हैं कि काफ़ी 'रेस्ट' चाहिए । कल मिल आइयेगा। माउंट बेटन रोड के एक नर्सिंग हॉल में हैं।" मुत्तुकुमरन् ने रेड्डियार को उत्तर दिया ।

उसके बाद क्वालालंपुर में गोपाल की. नाटक-मंडली सात दिन ठहरी रही। सातों दिन गोपाल की जगह मुत्तुकुमरन् ने ही भूमिका निभायी। अच्छा-खासा नाम भी कमाया । तारीफ़ के पुल बँधे और पुरस्कारों के अंबार लगे । पत्र-पत्रिकाओं में मुत्तुकुमरन् की बड़ी चर्चा रही । मुत्तुकुमरन्-माधवी की बेजोड़-जोड़ी कहकर सभी अनुशंसा और संस्तुति करते रहे ।

"संवाद भूल जाने पर आप ऐसे संवाद बोलते हैं, जो लिखे हुए संवादों से भी बढ़िया बन जाते हैं !" माधवी ने कहा ।

"इसमें आश्चर्य की क्या बात है, माधवी ? सबकी तरह तुम्हारा भी आश्चर्य प्रकट करना अच्छा नहीं लगता । यह तो बेमतलब की प्रशंसा है। मैं जन्म से इसी में लगा हूँ। बाय्स कंपनी के ज़माने से आज तक । मैं यह काम नहीं कर पाता- तब तुम्हारा आश्चर्य करना उपयुक्त होता।"

"आपके लिए यह साधारण-सी बात हो सकती है। लेकिन मेरे लिए तो आपकी हर साधना बड़ी लगती है और मुझे बड़े आश्चर्य में डाल देती है। मैं अपनी यह आवत अब बदल नहीं सकती!" माधवी ने उत्तर दिया।

"चुप भी करो। तुम बड़ी पगली हो !"

पगली ही सही। पर यकीन मानिए, सारा-का-सारा पागलपन आप पर निछावर है । आप जब सिंगापुर के 'एयर पोर्ट पर उतरे, तब अकेले और अलग[ १४१ ]
थलग पड़े रहे। किसी की आँखों में नहीं पड़े। यह देखकर मेरा दिल कुढ़ता रहा था। उसका फल अभी मिला है। अब्दुल्ला और गोपाल ने पिनांग में आपके दिल को कैसी-कैसी चोटें पहुँचायी थीं ! आज आप ही को उनका मान रखना पड़ रहा है, इक्जत बचानी पड़ रही है।"

"बस, बस ! बंद करो ! तुम्हारी ये बातें मुझे मिथ्याभिनान से भर देंगी।

"अच्छा ! कल अब्दुल्ला आपसे अकेले में मिलना चाहते थे, सो किसलिए?"

" 'समय पर आपने हमारी नाक रख ली। पुरानी बातें मन में न रखिए।'

कहकर उन्होंने हीरे की एक अंगूठी भी बढ़ायी। मैंने उत्तर दिया, 'साहब ! आपके लिए मैंने कुछ नहीं किया। मैंने अपने दोस्त की इज्जत रखने को अपना कर्तव्य समझा ! आप जो कुछ देना चाहते हैं, गोपाल को दीजिए ! मेरा आपसे कोई वास्ता नहीं !' इतना कहकर मैंने अंगूठी लेने से इनकार कर दिया ।"

"बहुत अच्छा किया ! सबने आपका दिल कितना दुखाया? अंग्रेजी नहीं जानने पर आपकी खिल्ली भी उडावी.!"

"कोई कुछ जाने या न जाने, मनुष्य की श्रेष्ठ भाषा तभी बोली जाती है, जब दूसरों के साथ उदारता का व्यवहार किया जाता है। अगर वह भाषा मालूम हो तो काफ़ी है। उस भाषा से अपरिचित रहनेवाला चाहे जितनी ही भाषाएँ क्यों न जाने, कोई फायदा नहीं है। दुःख के समय जहाँ आँसू की दो बूंदें टपकती हैं और सुख के समय जहाँ एक मुस्कान खिल उठती है, वही समस्त भाषाएँ जाननेवाला हृदय है। उससे बढ़कर श्रेष्ठ भाषा कोई नहीं !"

डॉक्टर का आदेश था कि गोपाल को एक हप्ता और आराम चाहिए । इससे 'मलाका. में होनेवाले नाटकों की भूमिका भी मुत्तुकुमरन के जिम्मे आयी। 'मुत्तुकुमरन् और नाटक-मंडली वाले कार ही में मलाका के लिए रवाना हुए। गोपाल की देख-रेख का भार रुद्रपति रेड्डियार के सुपुर्द किया गया।

मलाका में रुकते हुए एक दिन दोपहर को वे पोर्ट डिक्सन समद्र तट की सैर को भी निकल गये । मलाका में भी नाटकों के प्रदर्शन के लिए अच्छी-खासी वसूली हुई।

मुत्तुकुमरन् का अभिनय दिन-प्रतिदिन निखरता गया। मंडली के नामार्जन का वह एकमात्र कारण था। मलाका में नाटक पूरे होने पर, लौटते हुए रास्ते में चिरंपान में एक मित्र के यहाँ उन्हें भोज के लिए आमंत्रित किया गया। भोजन के उपरांत मेजबान के हाथों अब्दुल्ला ने मुत्तुकुमरन को वही अंगूठी दिलाने की कोशिश भी की। मुत्तुकुमरन् ने इसका उद्देश्य भांप लिया। अब्दुल्ला ने देखा कि मुतुकुमरन् उसके हाथों यह उपहार इनकार कर रहा है तो घुमा-फिराकर चिरपान के दोस्त के हाथों; उसके हाथ किसी तरह पहुँचा देने का उपक्रम किया। इस रहस्य को जानते हुए भी मुत्तुकुमरन् ने चार जनों के सामने उनका अपमान नहीं करना [ १४२ ]

चाहा और चुपचाप अंगूठी ले ली । पर चिरंपान से क्वालालम्पुर लौटते ही उसने पहला काम यह किया कि उनकी अंगूठी उन्हीं को लौटा दी।

"यह लीजिए, अब्दुल्ला साहब ! आप कुछ देकर मेरा प्रेम या मेरा स्नेह खरीद नहीं सकते। मैंने आपसे किसी चीज़ की आशा कर नाटक में अभिनय नहीं किया। मुझे इस बात की भी फ़िक्र नहीं कि नाटक के इस ठेके से आपको मुनाफ़ा होता है या घाटा उठाना पड़ रहा है ! मैं अपने मित्र के साथ मलाया आया। उसे तकलीफ़ में पड़ा देखकर, उसकी मदद करना मेरा कर्तव्य था। और किसी गरज से मैंने यह काम नहीं किया । यदि मेरे कर्तव्य के बदले आप कोई उपकार करना चाहते हैं तो मेरा नहीं, गोपाल का कीजिए। चिरंपान में चार लोगों के सामने मैंने आपका अपमान करना उचित नहीं समझा। इसीलिए इसे लेने का नाटक रचा। मुझे अंग्रेजी नहीं आती; पर उदारता आती है। मैं बड़ा स्वाभिमानी हूँ। लेकिन उसके लिए दूसरों का रत्ती भर भी अपमान नहीं करूँगा। मुझे माफ़ कीजिए। किसी भी स्थिति में मुझे इसे वापस करना ही पड़ेगा।"

"मुझे बड़े संकट में डाल रहे हैं, मुत्तुकुमरन् जी आप !"

"नहीं-नहीं, यह बात नहीं !"

अब्दुल्ला ने सिर झुकाये अंगूठी वापस ली और चले गये । औरत हो या मर्द, ऐसे लोगों से वास्ता पड़ने पर, जिन्हें वे किसी भी मूल्य पर खरीद नहीं पाते, उनका सिर ऐसा ही झुक जाया करता था।

उस दिन शाम को गोपाल ने मुत्तुकुमरन को बुला भेजा। मुत्तुकुमरन माउंट बैंटन रोड जाकर उससे मिला।

"बैंठो", अपने बिस्तर के पास की कुर्सी दिखाकर गोपाल ने कहा । मुत्तुकुमरन् बैठा।

"तुमने अब्दुल्ला की दी हुई अंगूठी वापस कर दी क्या?"

"हाँ ! उन्होंने एक बार नहीं, दो-दो बार इसे देना चाहा था ! मैंने दोनों ही बार लौटा दी।"

"ऐसा क्यों किया?"

"इसलिए कि उनका और मेरा कोई संबंध नहीं है । मैं तुम्हारे साथ यहाँ आया हूँ। तुमसे नहीं हो पा रहा तो मैं तुम्हारे बदले भूमिका कर रहा हूँ। वे कौन होते हैं मेरी तारीफ़ करनेवाले या मुझे पुरस्कार देने वाले ?"

"ऐसा तुम्हें नहीं कहना चाहिए ! उस दिन अण्णामल मन्ड्रम में जब नाटक का प्रथम मंचन हुआ था, उन्होंने तुम्हें माला पहनायी । उस दिन तुमने यह कहकर उनका जी दुखाया कि किसी के हाथों माला ग्रहण करते हुए सिर झुकाना पड़ता है। इसलिए मैं इन मालाओं से नफरत करता हूँ। आज हीरे की अंगूठी लौटाकर उनका दिल दुखा रहे हो । इस तरह के व्यवहार से तुम्हारी कौन-सी बड़ाई हो जाती [ १४३ ]
है ? नाहक एक बड़े आदमी का दिल दुखाने से तुम्हारे विचार से तुम्हारा कौन-सा फायदा होनेवाला है ?"

"ओ हो ! यह बात है ! कोई बड़ा मनुष्य हमारा अपमान करे तो चुप रहना चाहिए ! किसी बड़े आदमी का विरोध मोल नहीं लेना चाहिए ! तुम यही कहना चाहते हो न?'

"मान लो कि अब्दुल्ला ने तुम्हारा अपमान किया तो भी..."

"छि: ! छिः ! दुबारा ऐसी बात मुंह में न लाओ। मेरा अपमान वह क्या, उसके दादे-परदादे भी नहीं कर सकते। ऐसा समझकर, मानो मेरा बड़ा अपमान कर रहे हैं, कुछ दिलासा दे दिया, बस !"

"जो भी हो, इतना रोष तुम्हें नहीं सोहता उस्ताद !"

"वही एक चीज़ है, जो कलाकार के पास बची-खुची रहती है । उसे भी छोड़ दूं तो फिर कैसे ..?"

"अब्दुल्ला ने मेरे पास आकर कहा कि मैं किसी तरह तुम्हें उनकी वह अंगूठी लेने को बाध्य करूं।"

"वह तो मैंने उन्हीं से कह दिया कि आप जो भी देना चाहें, गोपाल को दे दीजिए। आपका और मेरा कोई सीधा संबंध नहीं। उन्होंने तुमसे नहीं कहा क्या ?" !"कहा था। कहकर वह अंगूठी मेरे हाथ दे गये हैं।"

"अच्छा!"

"तुम्हारे विचार से अब्दुल्ला की अंगूठी लेना ठीक नहीं । पर रुद्रपति रेड्डियार की घड़ी लेना ठीक है। है न सही बात?".

"रुद्रप्प रेड्डियार और अब्दुल्ला कभी एक से नहो पायेंगे। रेड्डियार आज करोड़पति हो गये हैं । पर मेरे साथ बिना किसी भेद-भाव के सलूक करते हैं । पैसे का गर्व उन्हें छू तक नहीं गया है।"

गोपाल इसका कोई जवाब नहीं दे सका । बोला, "तुमसे बात करने से कोई फायदा नहीं, ठीक है।"

मुत्तुकुमरन ने क्वालालंपुर में और दो नाटक खेले। इतने में गोपाल उठकर चलने-फिरने लगा था। दूसरे दिन का नाटक गोपाल ने भी पहली कतार में बैठकर देखा। उसके आश्चर्य की कोई सीमा नहीं रही। मुत्तुकुमरन का अभिनय देखकर उसने दांतों तले उंगली दबा ली।

नाटक खत्म होने पर गोपाल ने मुत्तुकुमरन के गले लगकर उसकी बड़ी तारीफ़ की। दूसरे दिन उन्होंने रेडियो और दूरदर्शन पर एक भेंट-वाता भी दी। उस भेंट-वार्ता में भाग लेने के लिए मुत्तकुमरन्, गोपाल और माधवी तीनों साथ गये थे । तीसरा दिन नगर-भ्रमण और दोस्तों से विदा लेने में बीता। जिस दिन वे लोग वहाँ से रवाना हुए, उस दिन मेरीलिन होटल में गोपाल की नाटक-मंडली की [ १४४ ]
एक विदाई-दावत दी गयी । उसमें बोलनेवाले सभी ने मुत्तुकुमरन की बड़ी तारीफ़ की। गोपाल ने कृतज्ञता-ज्ञापन में मुतुकुमरन् की भरपूर प्रशंसा की। इस कार्य में वह अघाया नहीं। माधवी ने अपनी मंडली की तरफ़ से एक गीत गाया-'आओ, आओ ! मेरे नूरे चश्म !' प्रथम चरण गाते हुए माधवी की आँखों ने प्रथम पंक्ति में बैठे मुत्तुकुमरन को ही अपनी दृष्टि का बिन्दु बनाया।

हमेशा की तरह यह समस्या उठ खड़ी हुई कि कौन-कौन हवाई जहाज़ पर सिंगापुर जायेंगे ? मुत्तुकुमरन् और माधवी ने पहले की तरह ही इनकार कर दिया। "तो मैं भी प्लेन पर नहीं जाता। तुम लोगों के साथ कार ही में जाऊँगा !"

कहकर गोपाल ने हठ ठाना ।

पैर ठीक होने पर भी वह कुछ कमज़ोर-सा बना रहा । उसके लिए दो सौ मील से अधिक की कार-यात्रा कष्टदायक हो सकती थी। अतः मुत्तुकुमरन् ने उस पर जोर देते हुए कहा---

"इस देश और इस देश की प्राकृतिक सुषमा को देखने के विचार से हम दोनों कार में आने की बात सोच रहे हैं। इसे तुम्हें अन्यथा नहीं लेना चाहिए ! तुम्हारी हालत अब भी कार-यात्रा के लायक नहीं है । इसलिए मेरी बात मानो !” मुत्तुकुमरन् के आग्रह करने पर गोपाल मान गया ।

उदयरेखा के प्रति अब्दुल्ला का मोह अभी उतरा नहीं था और उतरने का नाम भी नहीं लेता था। अत: बे तीनों मलेशियन एयरवेंज' के हवाई जहाज पर सिंगापुर को रवाना हुए। मुत्तुकुमरन् सहित बाकी सब लोग कार द्वारा जोगूर के रास्ते सिंगापुर के लिए रवाना हुए। रुद्रपति रेड्डियार ने उनके लिए दोपहर का भोजन टिफ़िनदानों में भिजवा दिया था। रास्ते में एक जंगली नाले के किनारे कारें खड़ी कर सबने दोपहर का भोजन किया। सफ़र बड़े मजे का रहा । जोगूर का पुल पार करते हुए शाम के साढ़े छः बज गये। शाम के झुटपुटे में सिंगापुर नगर बड़ा रमणीक लग रहा था। सर्द मौसम और अंधेरे के डर से कोई अनिन्द्य सुन्दरी लुक-छिपकर चहलकदमी करें तो कैसा रहे ? सिंगापुर नगर उस समय ऐसी ही स्थिति उत्पन्न कर रहा था। उनकी कारों के, पुक्किट डिमा रोड पार कर, पेनकुलिन सड़क पर स्थित एक होटल में पहुंचते-पहुँचते गाढ़ा अँधेरा हो चला था। जहाँ देखो, आसमान से बातें करनेवाली बहुमंजिली इमारतें कतारों में खड़ी थी;:: जो गत्ते के बने हुए मॉडलों से लगीं। सिंगापुर क्वालालम्पुर से भी ज्यादा चुस्त और गतिशील लगा। कारें सड़कों पर चींटी की तरह रेंग रही थीं। पीले रंग से पुती छतवाली टैक्सियाँ बड़ी तेज गति से बढ़ रही थीं। रात के भोजन के लिए सभी चिरंगून रोड स्थित 'कोमल विलास' नामक शाकाहारी भोजनालय को गये ।

इस बार गोपाल भी उनके साथ ठहर गया। उदय रेखा और अब्दुल्ला कांटिनेंटल होटल में ठहरे। सिंगापुर के नाटकों में गोपाल ने ही भूमिका की । सिंगापुर के [ १४५ ] नाटकों में भी काफ़ी अच्छी वसूली रही। एकाएक बारिश हो जाने से अंतिम दो दिन वसूली कुछ कम रही। अब्दुल्ला के ही शब्दों में वैसे कोई नुक़सान नहीं उठाना पड़ा।

सिंगापुर में भी वे लोग कुछ जगहों में घूम आये। जैसे जुरोंग औद्योगिक बस्ती, टाइगर वाम गार्डन्स, क्वीन्स टाउन की ऊंची इमारतें वगैरह। 'टाइगर बाम' बगीचे में, चीनी पुराणों के आधार पर पत्थर-चूने से बनी आकृतियों में बहुत भयंकर दृश्य चित्रित किये गये थे। उनमें यह दर्शाया गया था कि संसार में पाप करनेवाले कैसे-कैसे दंड भोगते हैं? किसी पापी को नरक में आरे से चीरा जा रहा था। किसी के सिर में लोहे की कीलें ठोंकी जा रही थीं। किसी को आग की लपटों में नगे शरीर झोंका जा रहा था। देखनेवालों में दहशत-सी फैल जाती। मुत्तुकुमरन ने हँसते हुए कहा, "मद्रास में रहनेवाले सभी सिने कलाकारों को बुला लाकर इन दृश्यों को बार-बार दिखाना चाहिए माधवी!"

"कोई जरूरत नहीं।"

"क्यों? ऐसा क्यों कहती हो?"

"इसलिए कि ऐसी करतूतें वहाँ प्रतिदिन होती ही रहती हैं।"

यह सुनकर मुत्तुकुमरन् ठहाका मारकर हँसा। माधवी भी उसकी हँसी में शामिल हुई। मद्रास रवाना होने के दिन सवेरे ही वे 'शॉपिंग' को चले । कपड़े की दुकान में जाने पर मुत्तुकुमरन ने कहा, "मुझे भी एक साड़ी खरीदनी है! तुम्हारी मुँह-दिखाई के अवसर पर देने के लिए।"

माधवी का चेहरा लज्जा से लाल हो गया।

शाम को सिंगापुर में भी एक विदाई-पार्टी का आयोजन किया गया था। उससे निपटकर, अपनी नाटक-मंडली के जहाज द्वारा लौटने की व्यवस्था का भार अब्दुल्ला को सौंपकर गोपाल, मुत्तुकुमरन् और माधवी हवाई जहाज़ पर सवार होने के लिए हवाई अड्डे को रवाना हुए। मद्रास जानेवाला एयर इंडिया का हवाई जहाज़ आस्ट्रेलिया होता हुआ सिंगापुर आता था और सिंगापुर से मद्रात को रवाना होता था। उस रात को आस्ट्रेलिया से ही वह देर से रवाना हुआ। अब्दुल्ला, नाटक-मंडली के सदस्य और सिंगापुर के कला-रसिक देर-अबेर का ख़्याल किये बिना विदा करने के लिए हवाई अड्डे पर आये हुए थे।

हवाई ज़हाज़ के सिंगापुर से रवाना होते समय ही बड़ी देर हो गयी थी। अतः मद्रास पहुंचते-पहुँचते रात के साढ़े बारह बज गये थे। कस्टम्स फार्मेलिटी से निवृत्त होकर बाहर आने तक एक बज गया था। उस वक्त भी गोपाल और माधवी का स्वागत करने के लिए बहुत-से लोग फूल-मालाओं के साथ आये थे। उसमें लगभग आधा घंटा लग गया।

गोपाल के बँगले से कारें आयी हुई थीं। एक कार में तो सिर्फ सामान -ही-सामान भर गया। दूसरी कार में वे तीनों वहाँ से चले। घर आते-आते दो बज गये थे। [ १४६ ]"इतनी रात गये अभी घर कैसे जाओगी भला! रात को यहीं सोकर सवेरे चली जाना!" गोपाल माधवी से बोला। लेकिन वह हिचकिचायी।

"तुम बहुत बदल गयी हो। पहले जैसी नहीं रही।" माधवी को हिचकते देखकर गोपाल ने हंसते हुए फिर कहा।

माधवी ने कोई जवाब नहीं दिया। गोपाल हँसता हुआ अन्दर चला गया।

"वह क्यों हँस रहा है?" मुत्तुकुमरन् ने माधवी से पूछा।

"उनकी निगाह में मैं बदल गयी न? इसलिए!"

"तुम घर जाओगी या यहीं ठहरोगी? देर तो बहुत हो गयी!"

ठहर सकती हूँँ। अगर आप अपने 'आउट हाउस' में किसी कोने में मुझे ठहरने की थोड़ी-सी जगह दें तो! इस बंगले में और किसी दुसरी जगह मैं नहीं ठहर सकती। यह एक भूत-बंगला है। कल सिंगापुर में आपने नरक की यातनाएँँ दिखायी थीं न! उन्हें फिर याद कीजिये तो बात समझ में आये।"

"आउट हाउस में तो एक ही खाट है! फ़र्श तो बड़ी ठंडी होगी।"

"परवाह नहीं! आप अपने चरण में शरण देकर नीचे-निरी फ़र्श पर भी जगह दें तो वही बहुत है!"

वह हामी भरकर बढ़ा तो वह उसके पीछे-पीछे चलती आयी।

उनके सिंगापुर से लौटने की बात का पहले ही पता हो जाने से नायर छोकरे ने 'आउट हाउस' को झाड़-पोंछकर साफ़ कर दिया था। मटके में ताजा पानी भरकर रखा था। गद्दे-तकिये के गिलाफ़ बदलकर बिछौने ठीक-ठाक सहेज रखा था।

उनके साथ आये हुए माधवी और मुत्तुकुमरन् के अलग-अलग सूट-केसों को ड्राइवर पहले ही 'आउट हाउस' के द्वार पर छोड़ गया था। दोनों ने उन्हें उठाकर अंदर रखा।

चाहे गोपाल कुछ भी सोच ले, माधवी ने निश्चय कर लिया था कि वह आज मुत्तुकुमरन् के साथ 'आउट हाउस में रहेगी।

मुत्तुकुमरन् ने बिछावन और तकिया निकालकर माधवी को दिया और स्वयं खाट के निरे गद्दे पर लेट गया ।

माधवी वह बिछावन नीचे बिछाकर लेट गयी।

"देखिये, यहाँ तो एक ही तकिया है। मुझे तकिये की जरूरत नहीं। आप लीजिए"― माधवी थोड़ी देर बाद यह कहते हुए उठी और तकिया मुत्तकुमरन् को देने आगे बढ़ी। मुत्तुकुमरन् को तबतक हल्की-सी नींद आ लगी थी। उसी समय टेलीफ़ोन की घंटी भी बज उठी। माधवी सोचने लगी कि वह चोंगा उठाये कि नहीं! मुत्तुकुमरन् बिस्तर पर उठ बैठा। उसने चोंगा उठाया तो दूसरे सिरे से गोपाल कुछ कह रहा था।