हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण २ हिंदी का प्रचार कार्य

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प्रचार-कार्य

भारतेंदु के समय से साहित्य-निर्माण का कार्य तो धूम-धाम से चल पड़ा पर उस साहित्य के सम्यक् प्रचार में कई प्रकार की बाधाएँ थीं। अदालतों की भाषा बहुत पहले से उर्दू चली आ रही थी इससे अधिकतर बालकों को अँगरेजी के साथ या अकेले उर्दू की ही शिक्षा दी जाती थी। शिक्षा का उद्देश्य अधिकतर सरकारी नौकरियों के योग्य बनाना ही समझा जाता रहा है। इससे चारों ओर उर्दू पढ़े-लिखे लोग ही दिखाई पड़ते थे। ऐसी अवस्था में साहित्य-निर्माण के साथ हिंदी के प्रचार का उद्योग भी बराबर चलता रहा। स्वयं बाबू हरिश्चंद्र को हिंदी भाषा और नागरी अक्षरों की उपयोगिता समझाने के लिये बहुत से नगरों में व्याख्यान देने के लिये जाना पड़ता था। उन्होंने इस संबंध में कई पैंफ्लेट भी लिखे। हिंदी-प्रचार के लिये बलिया में बड़ी भारी सभा हुई थी जिसमें भारतेंदु का बड़ा मार्मिक व्याख्यान हुआ था। वे जहाँ जाते अपना यह मूल मंत्र अवश्य सुनाते थे–– [ ४८५ ]

निज भाषा-उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय कौ सूल॥

इसी प्रकार पंडित प्रतापनारायण मिश्र भी "हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान" का राग अलापते फिरते थे। कई स्थानों पर हिंदी-प्रचार के लिये सभाएँ स्थापित हुईं। बाबू तोताराम द्वारा स्थापित अलीगढ़ की "भाषासंवर्द्धिनी" सभा का उल्लेख हो चुका है। ऐसी ही एक सभा सन् १८८४ में "हिंदी उद्धारिणि प्रतिनिधि मध्य-सभा" के नाम से प्रयाग में प्रतिष्ठित हुई थी। सरकारी दफ्तरों में नागरी के प्रवेश के लिये बाबू हरिश्चंद्र ने कई बार उद्योग किया था। सफलता न प्राप्त होने पर भी इस प्रकार का उद्योग बराबर चलता रहा। जब लेखकों की दूसरी पीढ़ी तैयार हुई तब उसे अपनी बहुत कुछ शक्ति प्रचार के काम में भी लगानी पड़ी।

भारतेंदु के अस्त होने के उपरांत ज्यों ज्यों हिंदी-गद्य-साहित्य की वृद्धि होती गई त्यों त्यों प्रचार की आवश्यकता भी अधिक दिखाई पड़ती गई। अदालती भाषा उर्दू होने से नवशिक्षितों की अधिक संख्या उर्दू पढ़नेवालों की थी जिससे हिंदी-पुस्तकों के प्रकाशन का उत्साह बढ़ने नहीं पाता था। इस साहित्य-संकट के अतिरिक्त नागरी का प्रवेश सरकारी दफ्तरों में न होने से जनता का घोर संकट भी सामने था। अतः संवत् १९५० में कई उत्साही छात्रों के उद्योग से, जिनमें बाबू श्यामसुंददास, पंडित रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिवकुमारसिंह मुख्य थे, काशी-नागरीप्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। सच पूछिए तो इस सभा की सारी समृद्धि और कीर्त्ति बाबू श्यामसुंदरदासजी के त्याग और सतत परिश्रम का फल है। वे ही आदि से अंत तक इसके प्राण स्वरूप स्थित होकर बराबर इसे अनेक बड़े उद्योगों में तत्पर करते रहे। इसके प्रथम सभापति भारतेंदुजी के फुफेरे भाई बाबू राधाकृष्णदास हुए। इसके सहायकों में भारतेंदु के सहयोगियों में से कई सज्जन थे, जैसे––रायबहादुर पंडित लक्ष्मीशंकर मिश्र एम॰ ए॰, खङ्गविलास प्रेस के स्वामी बाबू रामदीनसिंह, 'भारत-जीवन' के अध्यक्ष बाबू रामकृष्ण वर्मा, बाबू गदाधरसिंह, बाबू कार्त्तिकप्रसाद खत्री इत्यादि। इस सभा के उद्देश्य दो हुए––नागरी अक्षरों का प्रचार और हिंदी-साहित्य की समृद्धि।

[ ४८६ ]उक्त दो उद्देश्यों में से यद्यपि प्रथम का प्रत्यक्ष संबंध हिंदी-साहित्य के इतिहास से नहीं जान पड़ता, पर परोक्ष संबंध अवश्य है। पहले कह आए हैं कि सरकारी दफ्तरों आदि में नागरी का प्रवेश न होने से नवशिक्षितों में हिंदी पढ़नेवालों की पर्य्याप्त संख्या नहीं थी। इससे नूतन साहित्य के निर्माण और प्रकाशन में पूरा उत्साह नहीं बना रहने पाता था। पुस्तकों का प्रचार होते न देख प्रकाशक भी हतोत्साह हो जाते थे और लेखक भी। ऐसी परिस्थिति में नागरीप्रचार के आंदोलन का साहित्य की वृद्धि के साथ भी संबध मान हम संक्षेप में उसका उल्लेख कर देना आवश्यक समझते हैं।

बाबू हरिश्चंद्र किस प्रकार नागरी और हिंदी के संबंध में अपनी चंद्रिका में लेख छापा करते और जगह जगह घूमकर वक्तृता दिया करते थे। यह हम पहले कह आए हैं। वे जब बलिया के हिंदी-प्रेमी कलक्टर के निमंत्रण पर वहाँ गए थे तब कई दिनों तक बड़ी धूम रही। हिंदी भाषा और नागरी अक्षरों की उपयोगिता पर उनका बहुत अच्छा व्याख्यान तो हुआ ही था, साथ ही 'सत्यहरिश्चंद्र', 'अंधेरनगरी' और 'देवाक्षरचरित्र' के अभिनय भी हुए थे। "देवाक्षरचरित्र" पंडित रविदत्त शुक्ल का लिखा हुआ एक प्रहसन था जिसमें उर्दू लिपि की गड़बड़ी के बड़े ही विनोदपूर्ण दृश्य दिखाए गए थे।

भारतेंदु के अस्त होने के कुछ पहले ही नागरी-प्रचार का झंडा पंडित गौरीदत्तजी ने उठाया। ये मेरठ के रहनेवाले सारस्वत ब्राह्मण थे और मुदर्रिसी करते थे। अपनी धुन के ऐसे पक्के थे कि चालीस वर्ष की अवस्था हो जाने पर इन्होंने अपनी सारी जायदाद नागरी-प्रचार के लिये लिखकर रजिस्टरी करा दी और आप सन्यासी होकर 'नागरी-प्रचार' का झड़ा हाथ में लिए चारों और घूमने लगे। इनके व्याख्यानों के प्रभाव से न जाने कितने देवनागरी-स्कूल मेरठ के आस पास खुले। शिक्षा-संबंघिनी कई पुस्तकें भी इन्होंने लिखीं। प्रसिद्ध 'गौरी-नागरी-कोश' इन्हीं का है। जहाँ कहीं कोई मेला-तमाशा होता वहाँ पंडित् गौरीदत्तजी लड़कों की खासी भीड़ पीछे लगाए नागरी का झंडा हाथ में लिए दिखाई देते थे। मिलने पर 'प्रणाम', 'जयराम' आदि के स्थान पर लोग इनसे "जय नागरी की" कहा करते थे। इन्होंने संवत् १९५१ में दफ्तरों में नागरी जारी करने के लिये एक मेमोरियल भी भेजा था। [ ४८७ ]नागरीप्रचारिणी सभा अपनी स्थापना के कुछ ही दिनों पीछे दबाई नागरी के उद्धार के उद्योग में लग गई। संवत् १९५२ में जब इस प्रदेश के छोटे लाट सर ऐटनी (पीछे लार्ड) मैकडानल काशी में आए तब सभा ने एक आवेदन-पत्र उनको दिया और सरकारी दफ्तरों से नागरी को दूर रखने से जनता को जो कठिनाइयाँ हो रही थीं और शिक्षा के सम्यक् प्रचार में जो बाधाएँ पड़ रही थीं, उन्हें सामने रखा। जब उन्होंने इस विषय पर पूरा विचार करने का वचन दिया तब से बराबर सभा व्याख्यानों और परचों द्वारा जनता के उत्साह को जाग्रत करती रही। न जाने कितने स्थानों पर डेपुटेशन भेजे गए और हिंदी भाषा और नागरी अक्षरों की उपयोगिता की ओर ध्यान आकर्षित किया गया। भिन्न-भिन्न नगरों में सभा की शाखाएँ स्थापित हुई। संवत् १९५५ में एक बड़ा प्रभावशाली डेपुटेशन––जिसमे अयोध्या-नरेश महाराज प्रतापनारायणसिंह, माँडा के राजा रामप्रसादसिह, आवागढ़ के राजा बलवंतसिंह, डाक्टर सुंदरलाल और पंडित् मदनमोहन मालवीय ऐसे मान्य और प्रतिष्ठित लोग थे––लाट साहब से मिला और नागरी का मेमोरियल अर्पित किया।

उक्त मेमोरियल की सफलता के लिये कितना भीषण उद्योग प्रांत भर में किया गया था, यह बहुत लोगों को स्मरण होगा। सभा की ओर से न जाने कितने सज्जन सब नगरों में जनता के हस्ताक्षर लेने के लिये भेजे गए जिन्होंने दिन को दिन और रात को रात नहीं समझा। इस आंदोलन के प्रधान नायक देशपूज्य श्रीमान् पंडित् मदनमोहन मालवीयजी थे। उन्होंने "अदालती लिपि और प्राइमरी शिक्षा" नाम की एक बड़ी अँगरेजी पुस्तक, जिसमे नागरी को दूर रखने के दुष्परिणामों की बड़ी ही विस्तृत और अनुसंधान-पूर्ण मीमांसा थी, लिखकर प्रकाशित की। अंत में संवत् १९५७ में भारतेदु के समय से ही चले आते हुए उस उद्योग का फल प्रकट हुआ और कचहरियों में नागरी के प्रवेश की घोषणा प्रकाशित हुई।

सभा के साहित्यिक आयोजनों के भीतर हम बराबर हिंदी-प्रेमियों की सामान्य आकाक्षाओं और प्रवृत्तियों का परिचय पाते चले आ रहे है। पहले ही वर्ष "नागरीदास का जीवनचरित्र" नामक जो लेख पढ़ा गया वह कवियों के विषय में बढ़ती हुई लोकजिज्ञासा का पता देता है। हिंदी के पुराने [ ४८८ ]कवियो का कुछ इतिवृत्त-संग्रह पहले पहल संवत् १८९६ में गार्सा द तासी ने अपने "हिंदुस्तानी साहित्य का इतिहास" में किया, फिर सं॰ १९४० में ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने अपने "शिवसिंह सरोज" में किया। उसके पीछे प्रसिद्ध भाषावेत्ता डाक्टर (पीछे सर) ग्रियर्सन ने संवत् १९४६ में Modern Vernacular Literature of Northern Hindustan प्रकाशित किया। कवियों का वृत्त भी साहित्य का एक अंग है। अतः सभा ने आगे चलकर हिंदी पुस्तकों की खोज का काम भी अपने हाथ में लिया जिससे बहुत से गुप्त और अप्रकाशित रत्नों के मिलने की पूरी आशा के साथ साथ कवियों का बहुत कुछ वृत्तांत प्रकट होने की भी पूरी संभावना थी। संवत् १९५६ में सभा को गवर्मेंट से ४००) वार्षिक सहायता इस काम के लिये प्राप्त हुई और खोज धूमधाम से आरंभ हुई। यह वार्षिक सहायता ज्यों ज्यों बढ़ती गई त्यों त्यों काम भी अधिक विस्तृत रूप में होता गया। इसी खोज का फल हैं कि आज कई सौ ऐसे कवियों की कृतियों का परिचय हमें प्राप्त हैं जिनका पहले पता न था। कुछ कवियों के संबंध में बहुत सी बातों की नई जानकारी भी हुई। सभा की "ग्रंथमाला" में कई पुराने कवियों के अच्छे अच्छे अप्रकाशित ग्रंथ छपे। सारांश यह कि इस खोज के द्वारा हिंदी साहित्य का इतिहास लिखने की खासी सामग्री उपस्थित हुई जिसकी सहायता से दो एक अच्छे कविवृत्त-संग्रह भी हिंदी में निकले।

हिंदी भाषा के द्वारा ही सब प्रकार के वैज्ञानिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था का विचार भी लोगों के चित्त से अब उठ रहा था। पर बड़ी भारी कठिनता पारिभाषिक शब्दों के संबंध में थी। इससे अनेक विद्वानों के सहयोग और परामर्श से संवत् १९६३ में सभी ने "वैज्ञानिक कोश" प्रकाशित किया। भिन्न भिन्न विषयो पर पुस्तकें लिखाकर प्रकाशित करने का काम तो तब से अब तक बराबर चल ही रहा है। स्थापना के तीन वर्ष पीछे सभा ने अपनी पत्रिका (ना॰ प्र॰ पत्रिका) निकाली जिसमें साहित्यिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक सब प्रकार के लेख आरंभ ही से निकलने लगे थे और जो आज भी साहित्य से संबंध रखनेवाले अनुसंधान और पर्यालोचन उद्देश्य रखकर चल रही है। 'छत्रप्रकाश', 'सुजानचरित्र', 'जंगनामा', 'पृथ्वीराज रासो', [ ४८९ ]'परमाल रासो' आदि पुराने ऐतिहासिक काव्यो को प्रकाशित करने के अतिरिक्त तुलसी, जायसी,भूषण, देव ऐसे प्रसिद्ध कवियों की ग्रंथावलियों के भी बहुत सुंदर संस्करण सभा ने निकाले है। "मनोरंजन पुस्तक-माला" में ५० से ऊपर भिन्न भिन्न विषयों पर उपयोगी पुस्तकें निकल चुकी है। हिंदी का सबसे बड़ा और प्रामाणिक व्याकरण तथा कोश (हिंदी शब्दसागर) इस सभा के चिरस्थायी कार्यों में गिने जायँगे।

इस सभा ने अपने ३५ बर्ष के जीवन में हिंदी-साहित्य के "वर्तमान काल" की तीनों अवस्थाएँ देखी हैं[१]। जिस समय यह स्थापित हुई थी उस समय भारतेंदु द्वारा प्रवर्तित प्रथम उत्थान की ही परंपरा चली आ रही थी। वह प्रचार काल था। नागरी अक्षरों और हिंदी-साहित्य के प्रचार के मार्ग में बड़ी बाधाएँ थी। 'नागरीप्रचारिणी पत्रिका' की प्रारंभिक संख्याओं को यदि हम निकाल कर देखे तो उनमें अनेक विषयों के लेखों के अतिरिक्त कहीं कहीं ऐसी कविताएँ भी मिल जायँगी जैसी श्रीयुत महावीरप्रसाद द्विवेदी की "नागरी ने यह दशा!"

नूतन हिंदी-साहित्य का वह प्रथम उत्थान कैसा हँसता-खेलता सामने आया था, भारतेंदु के सहयोगी लेखकों का वह मंडल किस जोश और जिदःदिली के साथ और कैसी चहल पहल के बीच अपना काम कर गया, इसका उल्लेख हो चुका है। सभा की स्थापना के पीछे घर सँभालने की चिंता और व्यग्रता के से कुछ चिह्न हिंदी-सेवक-मंडल के बीच दिखाई पडने लगे थे। भारतेंदु जी के सहयोगी अपने ढर्रे पर कुछ न कुछ लिखते तो जा रहे थे, पर उनमें वह तत्परता और वह उत्साह नहीं रह गया था। बाबू हरिश्चंद्र के गोलोकवास के कुछ आगे-पीछे जिन लोगों ने साहित्य-सेवा ग्रहण की थी वे ही अब प्रौढ़ता प्राप्त करके काल की गति परखते हुए अपने कार्य में तत्पर दिखाई देते थे। उनके अतिरिक्त कुछ नए लोग भी मैदान में धीरे धीरे उतर रहे थे। यह नवीन हिंदी साहित्य का द्वितीय उत्थान था जिसके आरंभ में 'सरस्वती' पत्रिका के दर्शन हुए।


  1. संवत् १९७५ तक।