हिंदी साहित्य का इतिहास/आधुनिक काल प्रकरण ३ कहानी

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छोटी कहानियाँ

जिस प्रकार गीत गाना और सुनना मनुष्य के स्वभाव के अंतर्गत है। उसी प्रकार कथा-कहानी कहना और सुनना भी। कहानियों का चलन सभ्य-असभ्य सब जातियों में चला आ रहा है। सब जगह उनका समावेश शिष्ट साहित्य के भीतर भी हुआ है। घटना-प्रधान और मार्मिक, उनके ये दो स्थूल भेद भी बहुत पुराने हैं और इनका मिश्रण भी। बृहत्कथा, बैतालपचीसी, सिंहासन बत्तीसी इत्यादि घटनाचक्र में रमानेवाली कथाओं की पुरानी पोथियाँ हैं। कादंबरी, माधवानल कामकंदला, सीत-बसंत इत्यादि वृत्त-वैचित्र्य-पूर्ण होते हुए भी कथा के मार्मिक स्थलों में रमानेवाले भाव-प्रधान आख्यान हैं। इन दोनों कोटि की कहानियों में एक बड़ा भारी भेद तो यह दिखाई देगा कि प्रथम में इतिवृत्त का प्रवाह मात्र अपेक्षित होता है; पर दूसरी कोटि की कहानियों में भिन्न-भिन्न स्थितियों का चित्रण या प्रत्यक्षीकरण भी पाया जाता है।

आधुनिक ढंग के उपन्यासों और कहानियों के स्वरूप का विकास इस भेद के आधार पर क्रमशः हुआ है। इस स्वरूप के विकास के लिये कुछ बातें नाटकों की ली गईं, जैसे––कथोपकथन, घटनाओं का विन्यास-वैचित्र्य, बाह्य और अभ्यंतर परिस्थिति का चित्रण तथा उसके अनुरूप भाव-व्यंजना। इतिवृत्त का प्रवाह तो उसका मूल रूप था ही; वह तो बना ही रहेगा। उसमें अंतर इतना ही पड़ा कि पुराने ढंग की कथा-कहानियों में कथा-प्रवाह अखंड गति से एक ओर चला चलता था जिसमें घटनाएँ पूर्वापर जुड़ती सीधी चली जाती थीं। पर योरप में जो नए ढंग के कथानक नावेल के नाम से चले और बंगभाषा में आकर 'उपन्यास' कहलाए (मराठी में वे 'कादंबरी' कहलाने लगे) वे कथा के भीतर की कोई भी परिस्थिति आरंभ में रखकर चल सकते हैं और उनमें घटनाओं की शृंखला लगातार सीधी न जाकर इधर उधर और शृंखलाओं से गुंफित होती चलती है और अंत में जाकर सबका समाहार हो जाता है। घटनाओं के विन्यास की यही वक्रता या वैचित्र्य उपन्यासों और आधुनिक कहानियों की वह प्रत्यक्ष विशेषता है जो उन्हें पुराने ढंग की कथा-कहानियों से अलग करती है। [ ५०५ ]उपर्युक्त दृष्टि से यदि हम देखें तो इंशा की रानी केतकी की बड़ी कहानी न आधुनिक उपन्यास के अंतर्गत आएगी न राजा शिवप्रसाद का 'राजा भोज का सपना' या 'वीरसिंह का वृत्तांत' आधुनिक, छोटी कहानी के अंतर्गत।

अँगरेजी की मासिक पत्रिकाओं में जैसी छोटी छोटी आख्यायिकाएँ या कहानियाँ निकला करती हैं वैसी कहानियों की रचना 'गल्प' के नाम से बंगभाषा में चल पड़ी थी। ये कहानियाँ जीवन के बड़े मार्मिक और भाव-व्यंजक खंड-चित्रों के रूप में होती थीं। द्वितीय उत्थान की सारी प्रवृत्तियों के आभास लेकर प्रकट होनेवाली 'सरस्वती' पत्रिका में इस प्रकार की छोटी कहानियों के दर्शन होने लगे। 'सरस्वती' के प्रथम वर्ष (सं॰ १९५७) में ही पं॰ किशोरीलाल गोस्वामी की 'इंदुमती' नाम की कहानी छपी जो मौलिक जान पड़ती है। इसके उपरांत तो उसमें कहानियाँ बराबर निकलती रहीं पर वे अधिकतर बंगभाषा से अनूदित या छाया लेकर लिखी होती थीं। बंगभाषा से अनुवाद करनेवालो में इंडियन प्रेस के मैनेजर बा॰ गिरिजाकुमार घोष, जो हिंदी कहानियों में अपना नाम 'लाला पार्वतीनंदन' देते थे, विशेष उल्लेख योग्य हैं। उसके उपरांत 'बंगमहिला का स्थान है जो मिर्जापुर निवासी प्रतिष्ठित बंगाली सज्जन बा॰ रामप्रसन्न घोष की पुत्री और बा॰ पूर्णचंद्र की धर्मपत्नी थीं। उन्होंने बहुत सी कहानियों का बँगला से अनुवाद तो किया ही, हिंदी में कुछ मौलिक कहानियाँ भी लिखीं जिनमें से एक थी "दुलाईवाली" जो सं॰ १९६४ की 'सरस्वती' (भाग ८, संख्या ५) में प्रकाशित हुई।

कहानियों का आरंभ कहाँ से मानना चाहिए, यह देखने के लिये 'सरस्वती', में प्रकाशित कुछ मौलिक कहानियों के नाम वर्षक्रम से नीचे दिए जाते हैं––

इंदुमती (किशोरीलाल गोस्वामी) सं॰ १९५७
गुलबहार (किशोरीलाल गोस्वामी) सं॰ १९५९
प्लेग की चुड़ैल (मास्टर भगवानदास, मिरजापुर) १९५९
ग्यारह वर्ष का समय (रामचंद्र शुक्ल) १९६०
पंडित और पंडितानी (गिरिजादत्त वाजपेयी) १९६०
दुलाईवाली (बंग-महिला) १९६४
[ ५०६ ]इनमें से यदि मार्मिकता की दृष्टि से भाव-प्रधान कहानियों को चुने तो तीन मिलती है––'इंदुमती', 'ग्यारह वर्ष का समय' और 'दुलाईवाली'। यदि 'इंदुमती' किसी बँगला कहानी की छाया नहीं हैं, तो हिंदी की यह पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरांत 'ग्यारह वर्ष का समय', फिर 'दुलाईवाली' का नबंर आता हैं।

ऐसी कहानियों की ओर लोग बहुत आकर्षित हुए और वे इस काल के भीतर की प्रायः सब मासिक पत्रिकाओं में बीच-बीच में निकलती रहीं। सं॰ १९६८ में कल्पना और भावुकता के कोश बा॰ जयशंकर 'प्रसाद' की 'ग्राम' नाम की कहानी उनके मासिक पत्र, 'इंदु' में निकली। उसके उपरांत तो उन्होंने 'आकाशदीप', 'बिसाती', 'प्रतिध्वनि', 'स्वर्ग के खंडहर', 'चित्रमंदिर' इत्यादि अनेक कहानियाँ लिखीं जो तृतीय उत्थान के भीतर आती है। हास्यरस की कहानियाँ लिखनेवाले जी॰ पी॰ श्रीवास्तव की पहली कहानी भी 'इंदु' से सं॰ १९६८ में ही निकली थी। इसी समय के आस-पास आज-कल के प्रसिद्ध कहानी-लेखक पं॰ विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक' ने भी कहानी लिखना आरंभ किया। उनकी पहली कहानी 'रक्षा-बंधन' सन् १९१३ की 'सरस्वती' में छपी। सूर्यपुरा के राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह जी हिंदी के एक अत्यंत भावुक और भाषा की शक्तियों पर अद्भुत अधिकार रखने वाले पुराने लेखक हैं। उनकी एक अत्यंत भावुकतापूर्ण कहानी "कानों में कँगना" सं॰ १९७० में 'इंदु' में निकली थी। उसके पीछे अपने 'बिजली' आदि कुछ और सुंदर कहानियाँ भी लिखीं। पं॰ ज्वालादत्त शर्मा ने सं॰ १९७१ से कहानी लिखना आरंभ किया और उनकी पहली कहानी सन् १९१४ की 'सरस्वती' में निकली। चतुरसेन शास्त्री भी उसी बर्ष कहानी लिखने की ओर झुके।

संस्कृत के प्रकाड प्रतिभाशाली विद्वान्, हिंदी के अनन्य आराधक श्री चंद्रधर शर्मा गुलेरी की अद्वितीय कहानी "उसने कहा था" सं॰ १९७२ अर्थात् सन् १९१५ की 'सरस्वती' में छपी थी। इसमें पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इसकी ऐसी है जैसी बराबर हुआ करती हैं पर उसके भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झाँक रहा हूँ––केवल झाँक रहा है, निर्लज्जता [ ५०७ ] के साथ पुकार या कराह नहीं रहा। कहानी भर में कहीं प्रेम की निर्लज्ज प्रगल्भता, वेदना की वीभत्स विवृति नहीं है। सुरुचि के सुकुमार से सुकुमार स्वरूप पर कहीं आघात नही पहुँचता। इसकी घटनाएँ ही बोल रही हैं, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।

हिंदी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकार प्रेमचंद जी की छोटी कहानियाँ भी सं॰ १९७३ से ही निकलने लगीं। इस प्रकार द्वितीय उत्थान-काल के अंतिम भाग से ही आधुनिक कहानियों का आरंभ हम पाते हैं जिनका पूर्ण विकास तृतीय उत्थान में हुआ।


निबंध

यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी है। भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही सबसे अधिक संभव होता है। इसीलिये गद्यशैली के विवेचक उदाहरणों के लिये अधिकतर निबन्ध ही चुना करते हैं। निबंध या गद्यविधान कई प्रकार के हो सकते हैं- विचारात्मक, भावात्मक, वर्णनात्मक। प्रवीण लेखक प्रसंग के अनुसार इन विधानों का बड़ा सुंदर मेल भी करते हैं। लक्ष्यभेद से कई प्रकार की शैलियों का व्यवहार देखा जाता है। जैसे, विचारात्मक निबंधों में व्यास और समास की रीति, भावात्मक निबंधों में धारा, तरंग और विक्षेप की रीति। इसी विक्षेप के भीतर वह 'प्रलाप शैली' आएगी जिसका बँगला की देखा-देखी कुछ दिनों से हिंदी में भी चलन बढ़ रहा है। शैलियों के अनुसार गुण-दोष भी भिन्न-भिन्न प्रकार के हो सकते हैं।

आधुनिक पाश्चात्य लक्षणों के अनुसार निबंध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्व अर्थात् व्यक्तिगत विशेषता हो। बात तो ठीक है, यदि ठीक तरह से समझी जाय। व्यक्तिगत विशेषता का यह मतलब नहीं कि उसके प्रदर्शन के लिये विचारों की शृंखला रखी ही न जाय या जान-बूझकर जगह जगह से तोड़ दी जाय, भावों की विचित्रता दिखाने के लिये ऐसी अर्थ-योजना की जाय जो उनकी अनुभूति के प्रकृत या लोकसामान्य स्वरूप से कोई संबंध ही न रखे अथवा भाषा से सरकस वालों की-सी कसरतें या हठयोगियों के से आसन कराए जायँ जिनका लक्ष्य तमाशा दिखाने के सिवा और कुछ न हो।