आनन्द मठ/2.7

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(आनन्दमठ/2.7 से अनुप्रेषित)

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सातवां परिच्छेद

सत्यानन्दके चरणोंमें प्रणाम कर महेन्द्र जब चले गये, वह दूसरा शिष्य जो उसी दिन दीक्षित हुआ था, वहां आ पहुंचा। उसके प्रणाम करनेपर सत्यानन्दने उसे आशीर्वाद देकर मृगचर्मपर बैठनेके लिये कहा। इधर-उधरकी कुछ बातें करनेके [ ९५ ] अनन्तर उन्होंने कहा-"कृष्णमें तुम्हारी गहरी भक्ति है या नहीं?

शिष्यने कहा-“सो कैसे कहूं? मैं जिसे भक्ति समझता हूं, वह या तो दुनियांकी आंखोंमें धूल झोंकना है या अपनी आत्माके साथ धोखा करना है।"

सत्यानन्दने सन्तुष्ट होकर कहा-"ठीक कहते हो, जिससे भक्ति दिन दिन गहरी हो; वही काम करना। मैं आशीर्वाद करता हूं कि तुम्हारा प्रयास सफल होगा, क्योंकि तुम्हारी उमर अभी बहुत थोड़ी है। अच्छा, बेटा! मैं तुम्हें क्या कहकर पुकारा करूं? मैं तो यह बात पूछना ही भूल गया था।"

नूतन सन्तानने कहा,-"आपकी जो इच्छा हो वही कहकर पुकारें। मैं तो वैष्णवोंका दासानुदास हूं।"

सत्या०-"तुम्हारी यह नवीन अवस्था देखकर तो तुम्हें नवीनानन्द ही कहकर पुकारनेकी इच्छा होती है। बस आजसे तुम्हारा यही नाम हुआ। पर एक बात तो बतलाओ तुम्हारा पहला नाम क्या था? यदि कहने में कोई बाधा हो, तोभी कह देना। मुझसे कह दोगे, तो निश्चय जान रखो, कि कोई तीसरा यह न जानने पायेगा। सन्तानधर्मका मर्म यही है कि जो न कहने योग्य हो, वह बात भी गुरुसे कह देनी चाहिये। देनेसे कोई क्षति नहीं होती।"

शिष्य-"मेरा नाम शान्तिराम देव शर्मा है।"

"नहीं, तेरा नाम शान्तिर्माण पापिष्ठा है।"यह कहकर सत्यानन्दने अपने शिष्यकी काली और डेढ़ हाथ लम्बी दाढ़ी बायें हाथसे पकड़कर खींची। बस, नकली दाढ़ी झटसे अलग हो गयी। सत्यानन्दने कहा-“जा, बेटी! तू मेरे हो साथ धोखा-धड़ी करने आयी थी? यदि छकाने ही चली थी, तो फिर तूने यह डेढ़ हाथ लम्बी दाढ़ी क्यों लगायी। दाढ़ी अगर ठीक बैठ भी जाती, तो यह कोमल कण्ठस्वर और यह चितवन कैसे छिपा [ ९६ ] लेती? यदि मैं ऐसा बोदा होता, तो फिर इतने बड़े काममें हाथ क्योंकर लगाता?"

लजायी हुई शान्ति दोनों हाथोंसे आंखें छिपाये और सिर झुकाये हुई कुछ देरतक बैठी रही। इसके बाद हाथ हटाकर उसने बूढ़े बाबापर एक तिरछी चितवनका वार कर कहा-"प्रभो! मैंने कुछ अपराध तो नहीं किया। क्या स्त्रियोंके हाथमें बल नहीं होता?"

सत्या०-"उतना ही, जितना गायके खुरमें जल समा सकता है।"

शान्ति-"आप क्या कभी सन्तानोंके बाहुबलकी परीक्षा भी लेते हैं?"

सत्या०-"हाँ, लेता हूं।” यह कहकर सत्यानन्दने एक और कुछ थोड़ेसे लोहेके तार लाकर शान्तिके हाथमें देते हुए कहा-"इस फौलादके धनुषपर इस तारकी प्रत्यञ्चा चढ़ानी होती है। प्रत्यञ्चा दो हाथकी होती है। प्रत्यञ्चा चढ़ाते चढ़ाते धनुष उछल पड़ता है, जिससे प्रत्यञ्चा चढ़ाने-वाला ही दूर जा गिरता है। इसपर जो सही सलामत प्रत्यञ्चा चढ़ा दें, उसे ही मैं बलवान् समझता हूं।"

शान्तिने उस धनुष और तीरकी भलीभांति परीक्षा कर कहा-"क्या सभी सन्तान इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुके है?"

सत्या०-"नहीं, मैंने इसके द्वारा उनके बलका अनुमानमात्र कर लिया है।"

शान्ति-"कौन-कौन इस परीक्षामें उत्तीर्ण हुए हैं?"

सत्या०-"सिर्फ चार आदमी।"

शान्ति-"कौन-कौन? क्या मैं यह पूछ सकती हूं?"

सत्या०-"हाँ, कोई आपत्ति नहीं है? एक तो मैं ही इस परीक्षा में उत्तीर्ण हो चुका हूं।"

शान्ति-"और कौन कौन उत्तीर्ण हुए हैं?"

[ ९७ ]सत्या०-"जीवानन्द, भवानन्द और ज्ञानानन्द।”

यह सुन, शान्तिने धनुष और तार लेकर झटपट धनुषका रौंदा कस दिया और ब्रह्मचारीके चरणोंके पास रख दिया।

सत्यानन्द विस्मित, मीत और स्तम्भित हो गये। थोड़ी देर बाद बोले-“यह क्या? तुम देवी हो या मानवी?"

शान्तिने हाथ जोड़कर कहा, "मैं सामान्य मानवी हूं। पर हाँ, ब्रह्मचारिणी हूं।"

सत्या--"सो कैसे? क्या तुम बालविधवा हो? नहीं बाल-विधवाओंमें भी इतना बल नहीं होता, क्योंकि वे एक ही समय भोजन करती हैं।"

शान्ति-"मैं सधवा हूं।"

सत्या०-"तो क्या तुम्हारा स्वामी लापता है?"

शान्ति-"नहीं, उनका पता ठिकाना है और मैं उन्हींका पता पाकर यहां आयी भी हूं।"

सहसा सत्यानन्दके वित्तमें एक बात वैसे ही झलक आयी, जैसे मेघमालाको हटाकर एकाएक धूप निकल आये। उन्होंने कहा,-"अच्छा मुझे याद आ गया। जीवानन्दकी स्त्रीका नाम शान्ति था। कहीं तुम जीवानन्दकी ही स्त्री तो नहीं हो?"

नवीनानन्दने अपने मुँहको जटासे ढक लिया, मानो कमल-के फलोंपर हाथीकी सूंड़ फैल गयी। सत्यानन्द बोले-“तू यह पाप करने क्यों आयी?"

एकाएक अपनी जटाको पीठपर फेंक, शान्तिने मूंह उठाकर कहा-“प्रभो! पाप कैसा? पत्नीका स्वामीका अनुसरण करना क्या पाप कहलाता है? यदि सन्तानोंका धर्मशास्त्र इसे पाप बतलाता हो, तो यह सन्तानधर्म अधर्म है। मैं उनको सहधर्मिणी हूं। वे धर्माचरणमें लगे हैं, इसलिये मैं उनके धर्ममें सहायता करने आयी हूं।"

शांतिकी तेजभरी वाणी सुन, और उसकी बांकी गरदन, [ ९८ ] उठी हुई छाती, काँपते हुए अधर और उज्ज्वल तथा नीरपूर्ण नेत्र देख, सत्यानन्द बड़े ही प्रसन्न हुए, बोले,-"तुम साध्वी हो, इसमें सन्देह नहीं, किन्तु बेटी! पत्नी केवल गृहधर्म में ही सहधर्मिणी मानी जाती है। वीरधर्म में रमणीको सहायता कैसी?"

शान्ति-"कौनसे महावीर बिना पत्निके ही वीर हो गये हैं? यदि सीता न होती तो राम थोड़े ही वीर हो सकते थे? बतलाइये तो सही, अर्जुनने कितने विवाह किये थे? भीममें जितना बल था, उनके उतनी ही पत्नियां भी थीं। कहाँतक कहूँ? आपको बतलानेकी जरूरत नहीं है।"

सत्या०-"ठीक है, पर कौन वीर अपनी स्त्रीको लेकर रणभूमिमें गया हैं?"

सत्या०-अर्जुन जिस समय यादवी सेनाके साथ आकाश मार्गसे युद्ध कर रहे थे, उस समय किसने उनका रथ चलाया था? द्रौपदी यदि साथ न रहती, तो पाण्डवगण कुरुक्षेत्रको लड़ाई में जूझने थोड़े ही जाते?"

सत्या०-"ठीक है; पर साधारण लोगोंके मन स्त्रियों को देखकर चंचल हो जाते हैं, जिससे वे काममें ढिलाई करने लगते हैं। इसीलिये सन्तानोंसे यह प्रतिज्ञा करायी जाती है कि वे किसी स्त्रोके साथ एक आसनपर न बैठे। जीवानन्द मेरा दाहिना हाथ है। तुम क्या मेरा दाहिना हाथ ही तोड़ने चली हो?"

शान्ति-"नहीं, मैं आपके दाहिने हाथका बल बढ़ाने आयी हूं। मैं ब्रह्मचारिणी हूं और प्रभुके पास ब्रह्मचारिणी ही बनकर रहूंगी। मैं केवल धर्माचरण करने आयी हूँ स्वामीके दर्शन करनेके लिये नहीं। मैं विरहकी ज्वालासे जल नहीं रही हूं। स्वामीने जो धर्म स्वीकार किया है, उसमें मेरा हिस्सा क्यों न होगा? यही सोचकर मैं चली आयी हूँ।"

सत्या०-“अच्छी बात है, मैं कुछ दिनोंतक परीक्षा लूंगा।" [ ९९ ] शान्तिने पूछा-“मैं आनन्दमठमें रहने पाऊंगी न?”

सत्या०-"तो आज फिर कहाँ जाओगी?"

शान्ति-"इसके बाद?”

सत्या०-"माता भवानीकी तरह तुम्हारे ललाटमें भी अग्नि है। सन्तान-सम्प्रदायको ही क्यों भस्म करोगी?"

यह कह, आशीर्वाद दे, सत्यानन्दने शान्तिको विदा किया। शान्तिने आपही आप कहा-"अच्छा बुड्ढे! रह जा मेरे ललाटमें आग लगी है न? अच्छा, तो मैं देखूंगी, कि तेरी माँके कपालमें आग लगी है या मेरे?"

सच पूछो, तो सत्यानन्दका यह अभिप्राय नहीं था उन्होंने उसकी आँखोंमें जो बिजली थी, उसीकी बात कही थी। पर क्या ऐसी बात किसी बूढ़े-बड़ेको नौजवानोंसे कहनी चाहिये।