कामना/1.1

विकिस्रोत से
कामना  (1927) 
द्वारा जयशंकर प्रसाद

[  ]

पहला अंक

पहला दृश्य

स्थान-फूलों का द्वीप, समुद्र का किनारा

(वृक्ष की छाया में लेटी हुई कामना)

कामना-ऊषा के अपांग, में जागरण की लाली दक्षिण-पवन शुभ्र मेघमाला का अंचल हटाने लगा । पृथ्वी के प्रांगण में प्रभात टहल रहा है, क्या ही मधुर है; और संतोष भी मधुर है। विशाल.. जलराशि के शीतल अंक से लिपटकर आया हुआ पवन इस द्वीप के निवासियों को कोई दूसरा संदेश [  ]नहीं सुनाता, केवल शांति का निरंतर संगीत सुनाया करता है।सन्तोष । हृदय के समीप होने पर भी दूर है, सुन्दर है, केवल आलस के विश्राम का स्वप्न दिखाता है। परन्तु अकर्मण्य सन्तोष से मेरी पटेगी ? नहीं । इस समुद्र मे इतना हाहाकार क्यो है ? उँह, ये कोमल पत्ते तो बहुत शीघ्र तितर-बितर हो जाते है । (बिछे हुए पत्तो को बैठकर ठीक करती है ) यह लो, इन डालो से छनकर आई हुई किरणें इस समय ठीक मेरी आँखो पर पड़ेगी। अब दूसरा स्थान ठीक करूँ, बिछावन छाया मे करूँ। (पत्तों को दूसरी ओर बटोरती है ) घड़ी-भर चैन से बैठने में भी झंझट है।

(दो-चार फूल वृक्ष के चू पडते हैं―व्यस्त होकर वृक्ष की ओर सरोप देखने लगती है)

(तीन स्त्रियों का कलसी लिये हुए प्रवेश)

१―क्यों बिगड़ रही हो कामना ?

२―किस पर क्रोध है कामना ?

३―कितनी देर से यहाँ हो कामना ?

कामना―(स्वगत) क्यों उत्तर दूं ? सिर खाने के लिए यहाँ भी सब पहुंची।

(मुँह किरा लेती है और बोलती नहीं) [  ]१―क्यो कामना, क्या स्वस्थ नहीं हो ?

२―आहा । बेचारी कुम्हला गई है।

३―धूप मै क्यो देर से बैठी है । चल- कामना―मै नहीं चाहती कि तुम लोग मुझे तंग करो । मै अभी ठहरूँगी ।

२―दुलारी कामना, तू क्यो अप्रसन्न है?

३―प्यारी कामना, तू क्यो नही घर चलती?

१―काम जो करना होगा । (सँभलकर) अच्छा कामना, जब तक तेरा मन ठीक नहीं है, तेरा काम मैं ठीक कर दिया करूँगी।

२―तेरा कपास मै ओट दिया करूँगी।

३―सूत मै कात लिया करूँगी।

१―बुनना और पीने का जल भरना इत्यादि मै कर दूंगी। तू अपना मन ठीक कर, चित्त का चैन दे। कामना, तेरी-सी लड़की तो इस द्वीप-भर मे कोई नहीं है।

कामना-क्या मै रोगी हूँ जो तुम लोग ऐसा कह रही हो ? मै किसी का उपकार नहीं चाहती। तुम सब जाओ, मै थोड़ी देर मे आती हूँ। [  ](तीनों स्त्रियाँ जाती हैं, कामना उठकर टहलती है)

कामना―यह मुरझाये हुए फूल, उँह―कलियाँ चुनो, उन्हे गूंधो और सजाओ, तब कही पहनो । लो, इन्हे रूठने मे भी देर नहीं लगती। जब देखो, सिर झुका लेते हैं; सुगंध और रुचि के बदले इनमे एक दबी हुई गर्म सॉस निकलने लगती है । ( हार तोड़कर फेकती हुई और कुछ कहा चाहती है। दो मनुष्यों को आते देख चुप हो जाती है। वृक्ष की ओट में चली जाती है । एक हल और दूसरा फावड़ा लिये आता है)

सन्तोष―भाई, आज धूप मालूम भी नहीं हुई।

विनोद―हमे तो प्यास लग रही है। अभी तो दिन भी नहीं चढ़ा।

सन्तोष―थोड़ी देर छाँह में बैठ जायँ―बातें करें।

विनोद―काम तो हम लोगों का हो चुका, अब करना ही क्या है।

सन्तोष-अभी देव-परिवार के लिए जो नई भूमि तोड़ी जा रही है, उसमे सहायता के लिए चलना होगा।

विनोद―खेतो मे बहुत अच्छी उन्नति है। अपने से बहुत बच रहेगा। आवश्यकता होगी, तो दूंगा। [  ]सन्तोष―अरे, साल मे बहुत सार्वजनिक काम आ पड़ते हैं, तो उनके लिए संग्रहालय में भी तो रखना चाहिये।

विनोद—हाँ जी, ठीक कहा ।

(समुद्र की ओर देखता है)

सन्तोष—क्यो जी, इसके उस पार क्या है ?

विनोद—यही नहीं समझ में आता कि वह पार है या नहीं।

सन्तोष—ओह । जहाँ तक देखता हूँ, अखंड जलराशि है।

विनोद—क्या कभी इसमे चलकर देखने की इच्छा होती है।

सन्तोष—इच्छा तो होती है, पर लौटकर न आने के संदेह से साहस नहीं बढ़ता। ये हरे-भरे खेत, छोटी-छोटी पहाड़ियों से ढुलकते―मचलते हुए झरने, फूलों से लदे हुए वृक्षों की पंक्ति, भोली गउओं और उनके प्यारे बच्चों के झुंड, इस बीहड़ पागल और कुछ न समझने वाले उन्मत्त समुद्र में कहाँ मिलेगे। ऐसी धवल धूप, ऐसी तारों से जगमगाती रात वहाँ होगी? [  ]विनोद—मुझे तो विश्वास है कि कदापि न होगी सन्तोष—तब जाने दो, उसकी चर्चा व्यर्थ है क्यों जी, आज उपासना में वह कामना नहीं दिखाई पड़ी।

सन्तोष-क्या तुम उससेव्याह किया चाहते हो ? विनोद-उसकी बातें, उसकी भाव-भंगियाँ कुछ समझ मे नही आती। मै तो उससे अलग रहा चाहता हूँ।

विनोद-मेरी गृहस्थी तो व्याह के बिना अधूरी जान पड़ती है। मै तो लीला की सरलता पर प्रसन्न हूँ।

सन्तोष-तुम जानो। अच्छा होता यदि तुम उसी से व्याह कर लेते ?

विनोद-और तुम।

सन्तोप-मैं सन्तुष्ट हूँ-मुझे ब्याह की आव- श्यकता नहीं।

विनोद-अच्छी बात है। चलो, अब घर चलें।

(दोनो जाते हैं । कामना आती है)

कामना-हॉ, तुम हिचकते हो, और मैं तुमसे घृणा (जीभ दबाती है)।हैं। यह क्या ? इसके क्या [  ]अर्थ ? मै क्या इस देश की नहीं हूँ। क्या मुझमे कोई दूसरी शक्ति है, जो मुझे इनसे भिन्न रक्खा चाहती है। कुछ मै ही नहीं, ये लोग भी तो मुझको इसी दृष्टि से देखते है।

(लीला का प्रवेश)

लीला—बहन, क्या अभी घर न चलोगी ?

कामना —तू भी आ गई?

लीला—क्यो न आती?

कामना—आती, पर मुझसे यह प्रश्न क्यो करती है ?

लीला—बहन, तू कैसी होती जा रही है । तेरा चरखा चुपचाप मन मारे बैठा है । तेरी कलसी खाली पड़ी है । तेरा बुना हुआ कपड़ा अधूरा पड़ा है । तेरी-

कामना—मेरा कुछ नहीं है, तू ना । मै चुप रहा चाहती हूँ, मेरा हृदय रिक्त है । मैं अपूर्ण ।

लीला—बहन, मैने कुछ नहीं समझा ।

तू कुछ न समझ, बस, केवल चली जा।

(लीला सिर झुकाकर चली जाती है)

-मै क्या चाहती हूँ ? जो कुछ प्राप्त है, इससे भी महान् । वह चाहे कोई वस्तु हो। हृदय को कोई करो रहा है। कुछ आकांक्षा है, पर क्या है ? यह [  ]किसी को विवरण देना नहीं चाहती। केवल वह पूर्ण हो, और वहाँ तक, जहाँ तक कि उसकी इयत्ता हो।बस—

(दूर पर वंशी की ध्वनि । कामना इधर-उधर चौंककर देखने लगती है। समुद्र में एक छोटी सी नाव आती दिखाई पड़ती है। एक युवक बैठा डाँड चला रहा है। कामना आश्चर्य से देखती है। नाव तीर पर आकर लगती है)

-हैं, यह कौन ! मै क्यों झुकी जा रही हूँ ? और, सिर पर इसके क्या चमक रहा है, जो इसे बड़ा प्रभावशाली बनाये है । इसका व्यक्तित्व ऐसा है कि मै इसके सामने अपने को तुच्छ बना दूं, और इसे समर्पित हो जाऊँ।

(कुछ सोचती है। युवक स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखता हुआ बाँसुरी बजाता है। कामना उठती और फूल इकट्ठे करती है। अकस्मात् उसके अपर बिखेर देती है। युवक पैर उठाता है कि नीचे उतरे । कामना उसको हाथ पकड़कर नीचे ले आती है। युवक अपना स्वर्ण-पट्ट खोलकर युवती कामना के सिर पर बाँधता है, और वह आलिंगन करती है)

[पटाक्षेप]