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प्रेमाश्रम/५६

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प्रेमाश्रम
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ३५७ से – ३६१ तक

 

५६

ज्यों ही दशहरे की छुट्टियों के बाद हाईकोर्ट खुला, अपील दायर हो गयी और रुमाचार पत्रो के कालम उसकी कार्यवाही से भरे जाने लगे। समस्या बड़ी जटिल थीं। दडप्राप्तो में उन साक्षियों को फिर पेश किये जाने की प्रार्थना की थी जिनके आधार पर उन्हें दंड दिये गये थे। सरकारी वकील ने इस प्रार्थना का घोर विरोध किया, किन्तु इर्फानअली ने अपने दावे को ऐसी सबल युक्तियों से पुष्ट किया और दण्ड-भोगियो पर हुई निर्दयता को ऐसे करुणा-भाव से व्यक्त किया कि जजो ने मुकदमे की दुबारा जाँच किये जाने की अनुमति दे दी।

मातहत अदालत ने विवश हो कर शहादत को तलब किया। बिसेसर साह, डाक्टर प्रियनाथ, दारोगा खुद आलम, कतारसिंह, फैज़ और तहसीलदार साहब कचहरी में हाजिर हुए। बिसेसर साह का बयान तीन दिन तक होता रहा। बयान क्या था, पुलिस के हथकडों और कूटनीति का विशद और शिक्षाप्रद निरूपण था। अब वह दुर्बल इनकम टैक्स से डरनेवाला, पुलिस के इशारो पर नाचने वाला बिसेसर साह न था। इन दो वर्षों की ग्लानि, पश्चात्ताप और दैविक व्याधियो ने सम्पूर्णत उसकी काया पलट दी थीं। एक तो उसका बयान यो ही भंडाफोड़ था, दुसरे इर्फानअली की जिरहो ने रहा-सहा पर्दा भी खोल दिया। सरकारी वकील ने पहले तो बिसेसर को, अपने पिछले बयान से फिर जाने पर धमकाया, जज ने भी डाँट बतलाय पर बिसेसर जरा भी न डगमगाथा। इर्फानअली ने बड़ी नम्रता से कहा, गवाह का यों फिर जाना बेशक सजा के काबिल है, पर इस मुकदमे की हालत निराली है। यह सारा तूफान पुलिस का खड़ा किया हुआ है। इतने बेगुनाहों की जिन्दगी का ख्याल करके अदा लत को शहादत के कानून की इतनी सख्ती से पाबन्दी न करनी चाहिए। इन विनीत शब्दों ने जज साहब को शान्त कर दिया। पुराना जज तबदील हो गया था, उसकी जगह नये साहब आये थे।

सरकारी वकील ने भी अपने पक्ष के अनुकूल खूब जिरह की, सिद्ध करना चाहा कि गाँववालों की धमकी, प्रेमशंकर के आग्रह या इसी प्रकार के अन्य सम्भावित कारणों ने गवाहों को विचलित कर दिया; पर बिसेसर किसी तरह फन्दे में न आया। अँगरेजी और जातीय पत्रों ने इस घटना की आलोचना करनी शुरू की। अँगरेजी पत्रों का अनुमान था कि गवाह का यह रूपान्तर राष्ट्रवादियों के दुराग्रह का फल है। उन्होंने पुलिस को नीचा दिखाने के लिए यह चाल खेली है। अदालत ने इस बयान को स्वीकार गरने में बड़ी भूल की है। मुखबिर को यथोचित दंड मिलना चाहिए। हिन्दुस्तानी पत्रों को पुलिस पर छीटे उड़ाने का अवसर मिला। अदालत में मुकदमा पेश ही था, मगर पत्रों ने आग्रह करना शुरू किया कि पुलिस के कर्मचारियों से जवाब तलब करना चाहिए। एक मनचले पत्र ने लिखा, यह घटना इस बात का उज्ज्वल प्रमाण है कि हिन्दुस्तान की पुलिस प्रजा-रक्षण के लिए नहीं वरन् भक्षण के लिए स्थापित की गयी है। अगर खोज की जाय तो पूर्णत सिद्ध हो जायगा कि यहाँ की ६७ सैकडे दुर्घटनाओं का उत्तरदायित्व पुलिस के सिर है। बाज पत्रों को पुलिस की आड़ में जमीदारों के अत्याचार का भयंकर रूप दिखायी देता था। उन्हें जमीदारों के न्याय पर जहर उगलने का अवसर मिला। कतिपय पत्रों ने जमीदारों की दुरवस्था पर आँसू बहाने शुरू किये। यह आन्दोलन होने लगा कि सरकार की ओर से जमीदारों को ऐसे अधिकार मिलने चाहिए कि वह अपने असामियो को काबू में रख सके, नहीं तो बहुत सम्भव है कि उच्छृखलता का यह प्रचड झोका सामाजिक संगठन को जड़ से हिला दें।

बिसेसर साह के बाद डाक्टर प्रियनाथ की शहादत हुई। पुलिस अधिकारियों को उन पर पूरा विश्वास था, पर जब उनका बयान सुना तो हाथो के तोते उड़ गये। उनके कुतूहल का पारावार न था, मानो किसी नये जगत् की सृष्टि हो गयी। वह पुरुष जो पुलिस का दाहिना हाथ बना हुआ था, जो पुलिस के हाथों की कठपुतली था, जिसने पुलिस की बदौलत हजारों कमाये वह आज यो दगा दे जाये, नीति को इतनी निर्दयता से पैरो तले कुचले।

डाक्टर साहब ने स्पष्ट कह दिया कि पिछला बयान शास्त्रोक्त में था, लाश के हृदय और यकृत की दशा देख कर मैंने जो धारणा की थी वह शास्त्रानुकूल नही थी। बयान देने के पहले मुझे पुस्तकों को देखने का अवसर न मिला था। इन स्थलों में खून का रहना सिद्ध करता है कि उनकी क्रिया आकस्मिक रीति पर बन्द हो गयी। यन्त्राघात के पहले गला घोटने से यह क्रिया क्रम से बन्द होती और इतनी मात्रा में रक्त का जमना सम्भव न था। अपनी युक्ति के समर्थन में उन्होने कई प्रसिद्ध डॉक्टरों की सम्मति का भी उल्लेख किया। डाक्टर इर्फान अली ने भी इस विषय पर कई प्रामाणिक गंथो का अवलोकन किया था। उनकी जिरहो ने प्रियनाथ की धारणा को और भी पुष्ट कर दिया। तीसरे दिन सरकारी वकील की जिरह शुरू हुई। उन्होने जब वैद्यक प्रश्नो से प्रियनाथ को काबू में आते न देखा तब उनकी नीयत पर आक्षेप करने लगे।

वकील-क्या यह सत्य है कि पहले जिस दिन अभियोग का फैसला सुनाया गया था उस दिन उपद्रवकारियों ने आपके बँगले पर जा कर आपको घेर लिया था?

प्रिय-जी हाँ।

वकील उस समय वाबू प्रेमशकर ने आपको मार-पीट से बचाया था?

प्रिय-- जी हाँ, वह न आते तो शायद मेरी जान न बचती।

वकील--यह भी सत्य है कि आपको बचाने में यह स्वयं जख्मी हो गये थे?

प्रिय- जी हाँ, उन्हें बहुत चोट आयी थी। कन्धे की हड्डी टूट गयी थी।

वकील-आप यह भी स्वीकार करेंगे कि वह दयालु प्रकृति के मनुष्य है और अभियुक्तो से उन्हें सहानुभूति है।

प्रिय जी हाँ, ऐसा ही है।

वकील—ऐसी दशा में यह स्वाभाविक है कि उन्होने आपको अभियुक्तों की रक्षा करने पर प्रेरित किया हो?

प्रिय मेरे और उनके बीच में इस विषय पर कभी बात-चीत भी नहीं हुई।

वकील-क्या संभव नहीं है कि उनके एहसान ने आपको ज्ञात रूप से बाधित किया हो।

प्रिय मैं अपने व्यक्तिगत भावों को अपने कर्त्तव्य से अलग रखता हूँ। यदि ऐसा होता तो सबसे पहले बाबू प्रेमशंकर ही अवहेलना करते।

वकील साहब एक पहलू से दूसरे पहलू पर आते थे, पर प्रियनाथ चालाक मछली की तरह चारा कुतर कर निकल जाते थे। दो दिन तक जिरह करने के बाद अन्त में हार कर बैठ रहे।

दारोगा खुर्शेद आलम का बयान शुरू हुआ। यह उनके पहले बयान की पुनरावृत्ति थी, पर दूसरे दिन इर्फान अली की जिरहो ने उनको बिलकुल उखाड़ दिया। बेचारे बहुत तड़फड़ाये पर जिरहन्जाल से न निकल सके।

इर्फान अली को अब अपनी सफलता का विश्वास हो गया। वह आज अदालत से निकले तो बाछे खिली जाती थी। इसके पहले भी बड़े-बड़े मुकदमों की पैरवी कर चुके थे और दोनो जैब नोटों से भरे हुए घर चले थे, पर चित्त कभी इतना प्रफुल्लित न हुआ था। प्रेमशंकर तो ऐसे खुश थे मानो लड़के का विवाह हो रहा हो।

इसके बाद तहसीलदार साहब का बयान हुआ। वह घंटों तक लखनपुरवा की उद्दडता और दुर्जनता का आल्हा गाते रहे, लेकिन इर्फान अली ने दस ही मिनट में उसका सारा ताना-बाना उधेड़ कर रख दिया। इर्फान—आप यह तसलीम करते है कि यह सब मुलजिम लखनपुर के खास आदमियो में हैं?

तहसीलदार--हो सकते हैं, लेकिन जात के अहीर, जुलाहे और कुर्मी हैं।

इर्फान--अगर कोई चमार लखपली हो जाय तो आप उससे अपनी जूती गंवाने का काम लेते हुए हिचकेंगे या नहीं?

तहसीलदार-उन आदमियों में कोई लखपती नहीं है।

इर्फान-मगर सब काश्तकार है, मजदूर नही। उनसे अपको घास छिलवाने को क्या मजाल था?

तहसीलदार—सरकारी जरूरत।

इर्फान-क्या यह सरकारी जरूरत मजदूरो को मजदूरी दे कर काम कराने से पूरी ने हो सकती थी?

तहसीलदार—मजदूरों की तायदाद उस गाँव में ज्यादा नहीं है।

इफन–आपके चपरासियो में अहीर, कुर्मी या जुलाहे न थे? आपने उनसे यह काम क्यों न लिया?

तहसीलदार---उनका यह काम नही है।

इर्फान—और काश्तकारो का यह काम है।

तहसीलदार-जब जरूरत पड़ती है तो उनसे भी यह काम लिये जाते हैं।

इफन---आप जानते हैं जमीन लीपना किसका काम है?

तहसीलदार---यह किसी खास जात का काम नहीं है।

इफन–मगर आपको इससे तो इन्कार नही हो सकता कि आम तौर पर अहीर और ठाकुर यह नहीं करते?

तहसीलदार जरूरत पड़ने पर कर सकते हैं।

इर्फान–जरूरत पड़ने पर क्या आप अपने घोड़े के आगे घास नही डाल देते? इस लिहाज से आप अपने को साईस कहलाना पसन्द करेंगे?

तहसीलदार--मेरी हालत को उन काश्तकारों से मुकाबला नही हो सकता।

इर्फान---बहरहाल यह आपको मानना पड़ेगा कि जो लोग जिस काम के आदी नहीं हैं वे उसे करना अपनी जिल्लत समझते हैं, उनसे यह काम लेना बेइन्साफी है। कोई बहुमन खुशी से आप के बर्तन धोयेंगे। अगर आप उससे जबरन यह काम लें तो वह चाहे खौफ से करे पर उसका दिल जख्मी हो जायेगा। यह मौका पायेगा तो आपकी शिकायत करेगा।

तहसीलदार--हाँ, आपका यह फरमाना बजा है, लेकिन कभी-कभी अफसरों को मजबूर हो कर सभी कुछ करना पड़ता है।

इर्फान-तो आपको ऐसी हालतो में नामुलायम बातें सुनने के लिए भी तैयार रहना चाहिए। फिर लखनपुरवालो पर इलजाम रखते हैं, यह इन्सानी फितरत का

१—फितरत--स्वभाव। कसूर है। अब तो आप तसलीम करेंगे कि काश्तकारों से जो बेअदबी हुई वह आपकी ज्यादती का नतीजा था।

तहसीलदार अफसरों की आसाइश के लिए......

तहसीलदार साहब का आशय समझ कर जज ने उन्हें रोक दिया।

इर्फान अली जब सन्ध्या समय घर पहुँचे तब उन्हें बाबू ज्ञानशंकर का अर्जेंट तार मिला। उन्होंने एक जरूरी मुकदमे की पैरवी करने के लिए बुलाया था। एक हजार रुपये रोजाना मेहनताना का वादा था। डाक्टर साहब ने तार फाड़ कर फेंक दिया और तत्क्षण तार से जवाब दिया--खेद है मुझे फुर्सत नहीं है। मैं लखनपुर के मामले की पैरवी कर रहा हूँ।