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भ्रमरगीत-सार/२५४-मधुकर काके मीत भए

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बनारस: साहित्य-सेवा-सदन, पृष्ठ १७६ से – १७७ तक

 

मधुकर काके मीत भए?
दिवस चारि की प्रीति-सगाई सो लै अनत गए॥
डहकत फिरत आपने स्वारथ पाखँड और ठए।
चाँड़ै सरे[] चिन्हारी मेटी, करत हैं प्रीति नए॥

चितहि उचाटि मेलि गए रावल[] मन हरि हरि जु लए।
सूरदास प्रभु दूत-धरम तजि बिष के बीज बए॥२५४॥

  1. चाँड़ै सरे=मन की हौस निकल जाने पर, अपनी इच्छा पूरी हो जाने पर।
  2. रावल=महल, राजभवन