प्रेमाश्रम/४७

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प्रेमाश्रम  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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४७

ज्ञानशंकर लखनऊ से सीधे बनारस पहुँचे, किन्तु उदास और खिन्न रहते। न हवा खाने जाते, न किसी से मिलने-जुलते। उनकी दशा इम समय उस पक्षी की सी थी जिनके दोनों पंख कट गये हों, या उस स्त्री की सी जो किसी दैवी प्रकोप से पति-पुत्र-विहीन हो गयी हो। उनके जीवन की सारी आकाक्षाएँ मिट्टी में मिलती हुई जान पडती थी। अभी एक सप्ताह पहले उनकी आसा-लता सुखद समीरण से लहरा रही थी। उस स्थान पर अब केवल झुलसी हुई पतियों का ढेर था। उन्हें पूरा विश्वास था कि राय साहब ने सारा वृत्तान्त गायत्री को लिख दिया होगा। पूरी के लिए लपके थै, आधी भी हाथ में गयी। उन्हें सबसे विषम वेदना यह थी कि मेरे मनोभावो की कलई खुल गयी। अगर धैर्य का कोई आबार था तो यही दार्शनिक विचार था कि इन अवसरबाजों में मेरे लिए अपने लक्ष्य पर पहुँचने का और कोई मार्ग न था। उन्हें अपने कृत्यो पर लेशमात्र भी ग्लानि या लज्जा न थीं। बस, यहीं खेद था कि मेरे सारे षड्यन्त्र निष्फल हो गये।

लखनऊ से उन्होंने गायत्री को कई पत्र लिखे थे, पर बनारस से उसे पत्र लिखने की हिम्मत न पड़ती थी। उसके पास से आयी हुई चिट्ठियों को भी वह बहुत डरते-डरते खोलते थे। समाचार पत्रों को खोलते हुए उनके हाथ कांपने लगते थे। विद्या के पत्र रोज आते थे। उन्हें पढना ज्ञानशंकर के लिए अपनी भाग्य रेखा पढ़ने से कम [ २९६ ]रोमांचकारी न था। वह एक-एक वाक्य को इस तरह डर-डरकर पढ़ते, मानों किसी अँधेरी गुफा में कदम रखते हों। भय लगा रहता था कि कहीं उस दुर्घटना का जिक्र न आ जाय। बहुधा साधारण वाक्यों पर विचार करने लगते कि इसमें कोई गुढ़ाशय, कोई रहस्य, कौई उक्ति तो नहीं है। दसवें दिन गायत्री के यहाँ से एक बहुत लम्बा पत्र आया। ज्ञानशंकर ने उसे हाथ में लिया तो उनकी छाती बल्लियों उछलने लगी। बड़ी मुश्किल से पत्र खोला और जैसे हम कड़वी दवा को एक ही घूट में पी जाते हैं, उन्होंने एक ही सरसरी निगाह में सारा पत्र पढ़ लिया। चित्त शांत हुआ। रायसाहब की कोई चर्चा न थी। तब उन्होंने निश्चिन्त हो कर पत्र को दुबारा पढ़ा। गायत्री ने उनके पत्र न भेजने पर मर्मस्पर्शी शब्दों में अपनी विकलता प्रकट की थी और उन्हें शीघ्र ही गोरखपुर आने के लिए बड़े विनीत भाव से आग्रह किया था। ज्ञानशंकर ने सावधान हो कर साँस ली। गायत्री ने अपने चित्त की दशा को छिपाने का बहुत प्रयत्न किया था, पर उनका एक-एक शब्द ज्ञानशंकर की मरणासन्न आशाओं के लिए सुवा के तुल्य था। आशा बँधी, सन्तोष हुआ कि अभी बात नहीं बिगड़ी, मैं अब भी जरूरत पड़ने पर शायद उसकी दृष्टि में निर्दोष बन सकें, शायद राय साहब के लांछनों को मिथ्या सिद्ध कर सकें, शायद सत्य को असत्य कर सकें। सम्भव है, मेरे सजल नेत्र अव भी मेरी निर्देषिता का विश्वास दिला सके। इसी आवेश में उन्होंने गायत्री को पत्र लिखा, जिसका अधिकांश विरह-व्यथा में भेंट करने के बाद उन्होंने राय साहब के मिथ्याक्षेप की ओर भी संकेत किया। उनके अन्तिम शब्द थे-आप मेरे स्वभाव और मनोविचारों से भलीभाँति परिचित हैं। मुझे अगर जीवन में कोई अभिलाषा है तो यहीं कि मुरली की धुनि सुनते हुए इस असार संसार से प्रस्थान कर जाऊँ। मरने लगें तो उसी मुरलीवाले की सूरत आँखों के सामने हो, और यह सिर राधा की गोद में हो। इसके अतिरिक्त मुझे कोई इच्छा और कोई लालसा नहीं है। राधिका की एक तिरछी चितवन, एक मृदुल मुस्कान, एक मीठी चुटकी, एक अनोखी छटा पर समस्त संसार की सम्पदा को न्योछावर कर सकता हूँ। पर जब तक संसार में हैं संसार की कालिमा से क्योंकर बच सकता? मैंने राय साहब से संगीत-परिपद के विषय में कुछ स्पष्ट भाषण किया था। उसका फल यह हुआ कि अब वे मेरी जान के दुश्मन हो गये हैं। आपसे अपनी विपत्ति-कथा क्या कहूँ, आपको सुन कर दुःख होगा। उन्होंने मुझे मारने के लिए पिस्तौल हाथ में लिया था। अगर भाग न आता तो यह पत्र लिखने के लिए जीवित न रहता। मुझे हुक्म हुआ है कि अब फिर उन्हें मुंह न दिखलाऊँ। इतना ही नहीं, मुझे आपसे भी पृथक् रहने की आज्ञा मिली है। इस आज्ञा को भंग करने का ऐसा कठोर दंड निर्वाचित किया गया है कि उसका उल्लेख करके मैं आपके कोमल हृदय को दुःखाना नहीं चाहता। मेरे मौनव्रत का यही कारण हैं। सम्भव है, आपके पास भी इस आशय का कोई पत्र पहुँचा हो और आपको भी मुझे दूध की मक्खी समझने का उपदेश किया गया हो। ऐसी दशा में आप जो उचित समझे करें। पिता की आज्ञा के सामने सिर झुकाना आपका कर्तव्य है। उसका आप पालन करें। मैं आपसे दूर रह [ २९७ ]कर भी आपके निकट हूँ, ससार की कोई शक्ति मुझे आपसे अलग नही कर सकती। आध्यात्मिक बन्धन को कौन तोड सकता है। यह कृष्ण का प्रेमी निरन्तर राधा की गोद मे सलग्न रहेगा। आपसे केवल यही भिक्षा माँगती हूँ कि मेरी ओर से मनमुटाव न करें और अपने उदार हृदय के एक कोने में मेरी स्मृति बनाये रखें।'

ज्ञानशंकर के जाने के बाद गायत्री को एक-एक क्षण काटना दुस्तर हो गया था। उसे अब ज्ञात हुआ कि मैं कितने गहरे पानी में आ गयी हूँ। जब तक ज्ञानशंकर के हाथों का सहारा था उस गहराई का अन्दाज न होता था। उस सहारे के टूटते ही उसके पैर फिसलने लगे। वह सँभलना चाहती थी, पर तरग का वेग सँभलने न देता था। अबकी ज्ञानशंकर पूरे साल भर के बाद गोरखपुर से निकले थे। वह नित्य उन्हें देखती थी, नित्य उनसे बातें करती थी और यद्यपि यह अवसर दिन में एक या दो भार से अधिक न मिलता था, पर उन्हें अपने समीप देख कर उसका हृदय सन्तुष्ट हता था। अब पिजरे को खाली देख कर उसे पक्षी की बार-बार याद आती थी। वह मरल और गौरवशील थी, लेकिन उसके हृदय-स्थल में प्रेम का एक उबलता हुआ सोती छिपा हुआ था। वह अब तक अभिमान के मोटे कत्तल से दबा हुआ प्रवाह को कोई मार्ग न पा कर एक सुपुप्तावस्था में पड़ा हुआ था। यही मुपुप्ति उमका सतीत्व थी। पर भक्ति और अनुराग ने उस अभिमान के कत्तल को हटा दिया था और उबलता हुआ सोता प्रवल बेग से द्रवित हो रहा था। वह आत्मविस्मृति की दशा में मग्न हो गयी थी। वह अचेत सी हो गयी थी। उसे लेश मात्र भी अनुमान न होता था कि वह भक्ति मुझे वासना की ओर खीचे लिये जाती है। वह इस प्रेम के नशे में कितनी ही ऐसी बाते करती थी और कितनी ही ऐसी बाते सुनती थी जिन्हें सुन कर वह पहले कानो पर हाथ रख लेती, जो पहले मन में आती तो बह आत्मघात कर लेती, परन्तु अब वह गोपिका थी, वह सदनुराग की साक्षात् प्रतिमा थी। इस आध्यात्मिक उद्गार में बासना का लगाव कहाँ? ऐन्द्रिक तृष्णाओं का मिश्रण कहाँ? कृष्ण का नाम, कृष्ण की भक्ति, कृष्ण की रट ने उसके हृदय और आत्मा को पवित्र प्रेम से परिपूरित कर दिया था। गायत्री जब ज्ञानशंकर की ओर चल चितवनों से ताकत या उनके सतृष्ण लोचनों को अपनी मृदुल मुसक्यान सुधा से प्लावित करती तो वह अपने को गोपिका समझती जो कृष्ण से ठिठोली या रहस्य कर रही हो। उसकी इस चितवन और इस मुसक्यान में सच्चा प्रेमानुराग झलकता था। ज्ञानशकर अब उसे प्रेमोन्मत्त नेत्रों से देखते या उसकी निठुरता और अकृपा का गिला करते तो उसे इसमें भी उन्हीं पवित्र भावों की झलक दिखायी देती थी। इस प्रेम रहस्य और आमोद-विनोद का चस्का दिनों-दिन बढ़ता जाता था। उन प्रेम कल्पना के बिना चित्त उचटा रहता था। गायत्री इसी विकलता की दशा में कभी ज्ञानशंकर के दीवानखाने की ओर जाती, कभी ऊपर, कभी नीचे, कभी बाग मे, पर कही जी न लगता। वह गोपिकाओं की विरह-व्यथा की अपने वियोग-दुख से तुलना करती। सूरदारू के उन पदो को गाती जिनमें गोपिकाओं का विरह वर्णन किया गया। उसके बाग में एक कदम का पेड़ [ २९८ ]था। उसकी छाँह मे हरी घास पर लेटी हुई वह कभी गाती, कभी रोती, कभी-कभी उद्विग्न हो कर टहलने लगती। कभी सोचती, लेखनऊ चलें, कभी ज्ञानशंकर को तार दे कर बुलाने का इरादा करती, कभी निश्चय करती, अब उन्हें कभी बाहर न जाने देंगी। उनकी सुरत उसकी आँखों में फिरा करती, उनकी बातें कानों में गूंजा करती। कितना मनोहर स्वरूप है, कितनी रसीली बातें। साक्षात् कृष्णरूप है। उसे आश्चर्य होता कि मैंने उन्हें अकेले क्यों जाने दिया? क्या मैं उनके साथ न जा सकती थी? वह ज्ञानशंकर को पत्र लिखती तो उनकी निर्दयता और हृदय-शून्यता का खूब रोना रोती। उनके पत्र आते तो बार-बार पढ़ती। उसके प्रेम-कथन में अब सकोच या लज्जा बाधक न होती थी। गोपियों की विरह-कथा मे उसे अब एक करुण वेदनामय आनन्द मिलता था। प्रेमसागर की दो-चार चौपाइयाँ भी न पढ़ने पाती कि आँखो से आँसू की झड़ी लग जाती।

लेकिन जब ज्ञानशंकर वनारस चले गये और उनकी चिट्ठ्यों का आना बिलकुल बन्द हो गया तब गायत्री को ऐसा अनुभव होने लगा मानो मैं इस संसार से हूँ ही नहीं। यह कोई दूसरा निर्जन, नीरव, अचेतन संसार है। उसे ज्ञानशंकर के बनारस आने का समाचार ज्ञात न था। वह लखनऊ के पते से नित्यप्रति पत्र भेजती रही लेकिन जब लगातार कई पत्रों का जवाब न आया तब उसे अपने ऊपर झुंझलाहट होने लगी। वह गोंपियों की भाँति अपना ही तिरस्कार करती कि मैं क्यों ऐसे निर्दय, निष्ठुर, कठोर मनुष्य के पीछे अपनी जान खपा रहीं हैं। क्या उनकी तरह मैं भी निष्ठुर नहीं बन सकती। वह मुझे भूल सकते है तो मैं उन्हें नहीं भूल सकती है किन्तु एक ही क्षण में उसका यह मान लुप्त हो जाता और वह फिर खोयी हुई सी इधर-उधर फिरने लगती।

किन्तु जब दसवें दिन ज्ञानशंकर का विवशता सूचक पत्र पहुँचा तो पढ़ते ही गायत्री का चंचल हृदय अधीर हो उठा। वह उस विवशकारी आवेश के साथ उनकी ओर लपकी। यह उसकी प्रीति की पहली परीक्षा थी। अब तक उसका प्रेम-मार्ग काँटो से साफ था। यह पहला काँटा था जो उसके पैरो में चुभा। क्या यह पहली ही बाधा मुझे प्रेम-मार्ग से विचिलित कर देगी? मेरे ही कारण तो ज्ञानशंकर पर मुसीबते आयी है। मैं ही तो उनकी इन विडम्बनाओं की जड़ हूँ? पिता जी उनसे नाराज है तो हुआ करे, मुझे इसकी चिन्ता नहीं। मैं क्यों प्रेम नीति से मुंह मोड़ूँ? प्रेम का संबंध केवल दो हृदयों से है, किसी तीसरे प्राणी को उसमे हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं। आखिर पिता जी ने उन्हें क्यों मुझसे पृथक् रहने का आदेश किया? वे मुझे क्या समझते हैं? उनका सारा जीवन भोग-विलास में गुजरा है। वह प्रेम के गूढाशय क्या जाने? इस पवित्र मनोवृत्ति का क्या ज्ञान? परमात्मा ने उन्हें ज्ञानज्योति प्रदान की होती तो वह ज्ञानशंकर के आरमोत्कर्ष को जानते, उनकी आत्मा का महत्त्व पहचानते। तब उन्हें विदित होता कि मैंने ऐसी पवित्रात्मा पर दोषारोपण करके कितनी घोर अन्याय किया है। पिता की आज्ञा मानना मेरा धर्म अवश्य है, किन्तु प्रेम के सामने पिता की आज्ञा [ २९९ ]की क्या हस्ती है। यह ताप अनादि ज्योति की एक आभा है, यह दाह अनन्त शान्ति का एक मन्त्र है। इस ताप को कौन मिटा सकता है?

दूसरे दिन गायत्री ने ज्ञानशंकर को तार दिया, मैं आ रही हूँ, और शाम की गाड़ी से मायाशंकर को साथ ले कर बनारस चली।